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________________ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र आपस में संघर्ष पैदा होता है । एक ही स्त्री पर आसक्त कई कामी लोगों में परस्पर लाठियों, भालों, डंडों एवं तलवार आदि शस्त्रों से लड़ाई छिड़ जाती है। लड़ाई जहाँ होती है, वहाँ परस्पर वैरभावना की आग बढ़ती जाती है और वह सारे परिवार का, धन-सम्पत्ति का और कुल की प्रतिष्ठा एवं चारित्र का सर्वनाश कर देती है। इसीलिए शास्त्रकार ने इस सर्वनाश का सर्वप्रथम कारण मैथुनसंज्ञा में अत्यन्त आसक्त जीवों को बताया है ; फिर वे चाहे मनुष्य हों, चाहे पशु-पक्षी हों। निष्कर्ष यह है कि 'मैथुनसंज्ञा' ही मनुष्य को अपने आपका, परिवार का, धनसम्पत्ति का और कुलप्रतिष्ठा एवं चारित्रका भान भूला देती है। ____मैथुनसंज्ञा और उसका अर्थ-संसार के समस्त प्राणियों को आहार, भय, मैथुन और परिग्रह की चार संज्ञाओं ने बुरी तरह घेर रखा है। उनमें से मैथुन की संज्ञा बड़ी भयंकर होती है और वह होती है नोकषायरूप चारित्रमोहनीय कर्म के एक भेद-वेदकर्म के उदय से। साथ ही उसका उदय नौवें अनिवृत्तिकरण नामक गुणस्थान के सवेदभाग तक रहता है। अतः मैथुनसंज्ञा का अस्तित्व सवेदभाग के अनिवृत्तिगुणस्थानवर्ती मुनि तक में माना गया है। लेकिन रतिक्रीड़ा इत्यादि के रूप में मैथुनसेवनरूप उसका कार्य पांचवें गुणस्थान तक ही होता है। इससे आगे छठे गुणस्थान से ले कर आगे के सभी गुणस्थानों में मैथुनसंज्ञा का कार्य नहीं होता। मैथुनसंज्ञा किन-किन कारणों से पैदा होती है ? इसके लिए एक आचार्य कहते हैं 'पणीदरसभोयणेण य तस्सुवजोगे कुसीलसेवाए। वेदस्सोदीरणाए. मेहुणसण्णा हवदि एवं ॥' अर्थात्—'इन्द्रियों में दर्प उत्पन्न करने वाले स्वादिष्ट या गरिष्ठ रसीले भोजन के करने से, पहले सेवन किये हुए विषयभोगों का स्मरण करने से, कुशीलसेवन करने से और मोहनीयकर्मजनित वेद की तीव्र उदीरणा-उत्तेजना या तीव्र कर्मोदय होने से मैथुनसंज्ञा उत्पन्न होती है ।' । उपर्युक्त गाथा के द्वारा मैथुनसंज्ञा के अन्तरंग और बहिरंग कारणों का साफतौर से पता लग जाता है। प्रश्न होता है कि यहाँ मैथुनशब्द के आगे 'संज्ञा' शब्द का क्या प्रयोजन है ; क्योंकि मैथुनशब्द का अर्थ ही अब्रह्मसेवन होता है, फिर संज्ञा-शब्द के लगाने का १-इन चारों संज्ञाओं का विस्तृतस्वरूप जानने के लिए जैनशास्त्रों तथा जैनग्रन्थों का अवलोकन करें। -संपादक
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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