________________
चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य-आश्रव
४१३ बने हैं। महामोहान्धकार वाले तथा बुढ़ापा, मृत्यु, रोग और शोक से भरे हुए घोर परलोक में भी वे त्रस, स्थावर, सूक्ष्म और बादर जीवों में ; पर्याप्त, अपर्याप्त, साधारणशरीरी और प्रत्येक शरीरी जीवों में और अंडज, पोतज, जरायुज,रसज, संस्वेदिम (पसीने से उत्पन्न होने वाले जीव) उद्भिज्ज
और औपपातिक जन्म वाले ऐसे नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति के जावों में, पल्योपम और सागरोपम काल तक दुःख पाते हैं। मोह या मोहनीय कर्म से ग्रस्त जीव अनादि-अनन्त दीर्घकाल वाली या लंबे मार्ग वाली चतुर्गति रूप भयानक संसार-अटवी में भ्रमण करते हैं।
यह पूर्वोक्त अब्रह्माचरण से उत्पन्न कर्मों के फलविपाक-फल का भोग इस लोक में तथा परलोक में अल्पसुख और बहुत दुःख देने वाला है। यह महाभयानक है और गाढ़ कर्मरज के बंधन का कारण है । यह दारुण,कठोर और असाताजनक है । यह हजारों वर्षों में जा कर छूटता है । इसे भोगे बिना कदापि छुटकारा नहीं होता। इस प्रकार ज्ञातकुलनन्दन महात्मा महावीर जिनेन्द्र ने कहा है । वैसा ही इस पूर्वोक्त अब्रह्मसेवन के फलविपाक का वर्णन किया है । यह पूर्वोक्त अब्रह्म (मैथुन) भी देव, मनुष्य और असुरसहित समस्त सांसारिक जीवों द्वारा प्रार्थनीय-अभीष्ट है। इसी तरह यह चिरकाल से अभ्यस्त है । अनादिकाल से जीवों के साथ निरन्तर सम्बद्ध है, अन्त में दुःखदायी है, या दुःख से इसका अन्त होता है । यह चतुर्थ अधर्मद्वार समाप्त हुआ। ऐसा मैं (शास्त्रकार) कहता हूँ।
व्याख्या
शास्त्रकार ने पूर्व सूत्रपाठों में क्रमशः अब्रह्म के पर्यायवाची नामों का तथा अब्रह्म के स्वरूप और अब्रह्मसेवनकर्ताओं का निरूपण करने के बाद इस अन्तिम सूत्रपाठ में अब्रह्मसेवन के निमित्तों और उसके दुष्फलभोगों का संयुक्तरूप से वर्णन किया है। यद्यपि वर्णन स्पष्ट है, तथापि कुछ पदों पर तथा बीच-बीच में दिये गए दृष्टान्तों पर प्रकाश डालना आवश्यक है। अतः नीचे हम कुछ बातों पर प्रकाश डाल
मेहुणसन्नासंपगिद्धा—कामवासना खुजली की तरह बड़ी मीठी लगती है । परन्तु खुजली को बारबार खुजलाने पर उस स्थान पर घाव हो जाता है और वहाँ खून टपकने लगता है । इसी प्रकार कामवासना की खुजली को भी बार-बार खुजलाने से