SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 437
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६२ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र फल, फूल आदि पर या किसी स्थान पर अपना अधिकार जमा कर या ममत्त्व करके नहीं बैठता । उन्हें अपनी आजीविका के लिए जंगल काटने, खेती करने, कलकारखाने चलाने, या किसी शिल्प द्वारा निर्वाह करने की भी जरूरत नहीं होती । चिन्ता - फित्र से रहित, मस्ती भरा उनका जीवन होता है । वे यह नहीं, चिन्ता करते कि कल क्या खायेंगे ? कल क्या पहनेंगे ? कल कहाँ रहेंगे ? और कल कौन-सी जीविका करेंगे ? इसका कारण यह है कि उन्हें समस्त साधन-सामग्री अभिलाषा के अनुसार कल्पवृक्षों से मिल जाती है। खाने-पीने की चिन्ता उन्हें इसलिए नहीं करनी पड़ती कि वहाँ उन्हें हर चीज विचार करते ही मिल जाती है, किसी को खाद्य या पेय वस्तुओं का कोई मूल्य नहीं देना पड़ता । वहाँ की मिट्टी का स्वाद भी मिश्री से बढ़कर मधुर होता हैं तथा फलों का रस अमृत के समान होता है । इसीलिए कहा है'अमय र सफलाहारा ।' इतना बेफिक्री का मस्त और शान्त जीवन होते हुए भी, भोगभूमि के वातावरण में 'सहज भाव से भोगों के सर्वोत्तम प्राकृतिक साधनः प्राप्त होने पर भी, अपनी जिंदगी के अन्तिम क्षणों तक कामभोगों से सर्वथा तृप्त नहीं होते. और अतृप्त अवस्था में ही अपना शरीर छोड़ कर परलोक में चल देते हैं । बाह्यशान्ति का साम्राज्य होने पर भी उन्हें इस सम्बन्ध में आन्तरिक मानसिक शान्ति और संतुष्टि नहीं मिलती । भोगभूमि के मनुष्यों का संक्षिप्त परिचय - प्रसंगवश जैनशास्त्रों की दृष्टि से भोगभूमि के इन मनुष्यों का संक्षेप में परिचय देना आवश्यक है । जैनदृष्टि से जम्बूद्वीप में कुल सात क्षेत्र माने जाते हैं - १ भरत, २ ऐरावत, ३ महाविदेह, ४ हैमवत, ५, हैरण्यवत, ६ और हरिवर्ष ७ रम्यक्वर्ष । धातकीखण्ड और पुष्करार्द्धद्वीप में भरत आदि क्षेत्र जम्बूद्वीप से दुगुने हैं । इन सात क्षेत्रों में से भरत, ऐरावत और महाविदेह क्ष ेत्र से सम्बन्धित ५ - ५ कर्मभूमियाँ है । यानी जम्बूद्वीप में भरत, ऐरावत और विदेह क्षेत्र की तीन कर्मभूमियाँ है, तथा धातकीखण्ड और पुष्करार्द्ध द्वीप में इन तीनों क्षेत्रों की दुगुनी दुगुनी कर्मभूमियाँ हैं । कुल मिला कर ३ + ६ + ६ = १५ कर्मभूमियाँ हैं । इन कर्मभूमिकों में रहने वाले लोग असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प, कला (सेवा) आदि ६ कर्मों द्वारा अपनी आजीविका करते हैं । उत्तरकुरु और देवकुरुक्षेत्र भौगोलिक दृष्टि से महाविदेह क्षेत्र की ही सीमा में क्रमशः उत्तर और दक्षिण में हैं ; इनमें अकर्मभूमिक जीव रहते हैं । इसी तरह हरिवर्ष, रम्यक्वर्ष तथा हैमवत और हैरण्यवत में भी अकर्मभूमिका वाले जीव निवास करते हैं । इन अकर्मभूमियों में असि, मसि, कृषि आदि किसी प्रकार का कर्म या आजीविका के लिए कोई व्यवहार नहीं होता । वहाँ हमेशा भोगभूमि बनी रहती है । जीवनयापन के लिए जो भी अल्प
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy