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________________ - ३६३ चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य-आश्रव सुखसामग्री उन्हें अपेक्षित होती है, वह कल्पवृक्षों से मिल जाती है। उन्हें कभी कमाने या जीविका के लिए उखाड़पछाड़ करने की जरूरत नहीं पड़ती। प्रकृति का यह नियम है कि जहाँ जनसंख्या घटती-बढ़ती नहीं, वहाँ संघर्ष नहीं होता, न जीवनोपयोगी साधनों को पाने के लिए रस्साकस्सी ही होती है। सबको अपनी आवश्यकता और रुचि के अनुसार मनचाही चीजें प्रकृति से प्राप्त हो जाती हैं। जैनदृष्टि से दो प्रकार के कालचक्र माने जाते हैं—उत्सर्पिणी काल और अवसर्पिणी काल । आयु, शरीर, संस्थान, संहनन, धृति, बल आदि बातें जिसमें घटती जाती हैं, उसे अवसर्पिणी-काल कहते हैं और जिसमें ये चीजें उत्तरोत्तर बढ़ती जाती हैं, उसे उत्सर्पिणीकाल कहते हैं । इन दोनों में से प्रत्येक काल के ६-६ आरे क्रमशः होते हैं । वर्तमान में अवसर्पिणीकाल काल का पांचवां आरा चल रहा है। १ सुषमसुषमा, २ सुषमा, ३ सुषमदुःषमा ४ दुःषमसुषमा,५ दुःषमा और ६ दुःषमदुःषमा-इन ६ आरों के व्यतीत हो जाने के बाद इनसे विपरीत फिर उत्सर्पिणीकाल के क्रमश: ६ आरे दु:षमदुःषमा से शुरू हो कर सुषमसुषमा तक सम्पूर्ण होते हैं । सुषमसुषमा से ले कर दुःषमदुःषमा तक के ६ आरे क्रमशः ४ कोटाकोटिसागर, ३ कोटाकोटिसागर, २ कोटाकोटिसागर, १ कोटाकोसागर में ४२ हजार वर्ष कम, २१ हजार वर्ष और २१ हजार वर्ष के लम्बे होते हैं । - इन सातों क्षेत्रों में से सिर्फ भरत और ऐरावत क्षेत्र ही ऐसे हैं, जहाँ छही कालों का क्रमशः परिवर्तन होता रहता है। महाविदेहक्षेत्र में तो हमेशा चतुर्थ आरे का-सा भाव और व्यवहार बना रहता है। भोग भूमि क्षेत्रों में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी जैसा काल चक्र नहीं होता। __यद्यपि भोगभूमि के इन भोगप्रधान यौगलिक मानवों की आयु उत्कृष्ट तीन पल्योपम की होती है ; लेकिन वे अपनी लम्बी उम्र को मनोवांछित कामभोगों के सेवन में ही बिता देते हैं। यद्यपि उनमें सप्त कुव्यसनों में से एक भी व्यसन नहीं होता; परन्तु अप्रत्याख्यानादि कषाय का उदय होने से वे त्याग-प्रत्याख्यान नहीं कर सकते । इन्द्रियविषयों का यथेष्ट सेवन करते हैं। उन्हें किसी भी अभीष्ट वस्तु का अभाव प्रतीत नहीं होता । अपने दीर्घ जीवनकाल में उनके सिर्फ दो ही संतान-एक लड़का और एक लड़की-नियमानुसार होते हैं। चूंकि ज्यादा संतान होने पर मनुष्य को उनके पालन-पोषण की,रोगादि दुःख से सुरक्षा की व वियोग आदि की चिन्ता सवार हो जाती है । अतः एक पुत्र और पुत्री के रूप में नियमित संतान होने से ये किसी भी प्रकार के रोग, शोक, जरा,वियोग आदि के दुःख से व्याकुल या पीड़ित नहीं होते।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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