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________________ चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य आश्रव ३६१ तीन पल्योपम की दीर्घायु, अनुरूप वायुवेग इत्यादि सभी साधन एक से एक बढ़ कर थे । यद्यपि चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, या मांडलिक नरेशों की तरह यौगलिकों के पास किसी वैभव, धनसम्पत्ति, सेना, राजाओं की मंडली द्वारा आज्ञाकारिता, राजलक्ष्मी या रथादि परिवहन के साधनों के होने का उल्लेख शास्त्रकार ने मूलपाठ में नहीं किया है; परन्तु उन्हें इनमें से किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं होती । प्रकृति प्राप्त उत्तमोत्तम साधनों पर निर्भर रहते हैं । उनके पैरों में ही इतनी शक्ति होती है कि उन्हें वाहन आदि की अपेक्षा नहीं होती, और वे जिंदगी की आवश्यक - ताओं के लिए इधर-उधर मारे-मारे नहीं फिरते । उसी वनप्रदेश या भूखण्ड में अहमिन्द्र की तरह निर्द्वन्द्व, शान्त, निर्वैर और कलहरहित उनका विचरण होता है । वे धनसम्पत्ति की न तो अपने जीवन निर्वाह के लिए जरूरत समझते हैं और न ही संग्रह करके रखते हैं । उन्हें कृत्रिम भोगसाधनों या सुखसामग्री की आवश्यकता ही नहीं होती । प्रकृति से मिला हुआ उत्तम सुडौल, सुपुष्ट, बलिष्ठ, सुन्दर और समस्त परिपूर्ण अंगोपांगों से युक्त शरीर ही उनका सर्वस्व जीवनधन होता है; जिसके सहारे वे पंचेन्द्रियविषयों के उपभोग का आनन्द लेते हैं । उनके शरीर में कभी रोग नहीं होता; उनके नख से लेकर शिखा तक किसी भी अंग में कोई विकार पैदा नहीं होता; और न कभी वे किसी बात की चिन्ता, शोक या संताप से ग्रस्त होते हैं । जिसका जीवन प्रकृति पर निर्भर है, प्रकृति के नियमों का जो उल्लंघन नहीं करता ; उसे रोग, शोक, दुःख, दारिद्र्य और दुश्चिन्तन क्यों होगा ? वे जहाँ होते है, वहाँ न तो नगर बसे हुए हैं, न गाँव ही ; न वे अपनी सुरक्षा के कभी लिये कोट, किला, खाई या सुरक्षित स्थान बनाते हैं; और न ही सर्दी, गर्मी और बरसात से बचने के लिए मकान बनाते हैं । आधुनिक सभ्यता और बनावट से कोसों दूर रहते हैं । कृषि, वाणिज्य, शिल्प, कला-कौशल, कल-कारखाने आदि उत्पादन के साधन और रथ, विमान, जलयान आदि वाहन तथा शस्त्र, अस्त्र आदि सुरक्षा के साधनों की वे आवश्यकता ही नहीं समझते । जीवनयापन के लिए या विषयसुख के लिए वे स्वस्थ शरीर और प्राकृतिक वनसम्पदा पर ही निर्भर रहते हैं । वन सम्पदा इतनी घनी, सुरम्य, शान्त और निर्द्वन्द्व है कि उन्हें जीवनयापन व विषयसुखलाभ के लिए कहीं भी अन्यत्र जाने या कृत्रिम साधनों का सहारा लेने की जरूरत ही नहीं पड़ती । इसीलिए शास्त्रकार सर्वप्रथम उनका परिचय एक ही पद में दे देते हैं—'उत्तरकुरुदेव कुरुवणविवरचारिणो नरगणा ।' वस्तुतः उनका जीवन शान्त निर्द्वन्द्व, निश्चिन्त होता है और उनके कषाय बहुत ही मन्द होते हैं । उनके जीवन में स्वार्थ की मात्रा अत्यन्त कम होती है; इसलिए कभी संघर्ष का मौका नहीं आता । वहाँ वनसम्पदा इतनी है कि कोई किसी वृक्ष, लता,
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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