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________________ ३६० श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र सर्वथा निकाल फेंको कि यदि विषयसेवन की पूर्ण सामग्री मिल जाती तो हम उससे संतुष्ट हो जाते । आज तक कोई भी, यहाँ तक कि चक्रवर्ती जैसा परम शक्तिमान मानव भी भोगसामग्री के अंबार लगा कर तृप्त नहीं हुआ तो तुम भोगसामग्री से कैसे तृप्त हो जाओगे ? इसी उपदेश को हृदयंगम कराने के लिए शास्त्रकार ने विस्तृतरूप से ये सब दृष्टान्त दे कर निरूपण किया है। भोग का प्रमुख साधन स्वस्थ और उत्तम शरीर होने पर भी—कोई यह कह सकता है कि मांडलिक नृपों या देवकुरु-उत्तरकुरु क्षेत्र के भोगभूमीय मानवों के पास उत्तम, स्वस्थ और बलवान शरीर नहीं होता होगा ; तब वे कहाँ से विषयभोगों से तृप्त होते ? इसी का उत्तर शास्त्रकार 'भुज्जो मंडलियनरवरेंदा भुज्जो उत्तरकुरुदेवकुरुवणविवरपादचारिणो नरगणा अवितित्ता कामाणं' इस विस्तृत पाठ से देते हैं । - वास्तव में विषयभोगों के सेवन के लिए प्रमुख साधन शरीर है। अगर शरीर और शरीर के अवयव स्वस्थ, सुन्दर, बलिष्ठ, परिपूर्ण, सुडौल, हृष्टपुष्ट और प्रमाणोपेत नहीं हैं तो मनचाहे विषयभोगों के सेवन की आशा भी दुराशा ही सिद्ध होती है । यही कारण है कि इस विस्तृत सूत्रपाठ में शास्त्रकार ने सर्वप्रथम मांडलिक राजाओं के बल, परिवार, परिषद्, पुरोहित, अमात्य, दंडनायक, सेनापति, मंत्रणाकुशल एवं नीतिनिपुण मंत्रिगण, वैभव, राजलक्ष्मी आदि भोग के सभी साधनों की प्रचुरता का वर्णन किया है। तत्पश्चात् भोगभूमि में पले हुए और भोगों की ही दुनिया में बसने वाले देवकुरु-उत्तरकुरुक्षेत्र के यौगलिक मनुष्यों के विषयभोगों और उनके प्रमुख साधन शरीर व उसके अंगोपांगों का विस्तृत निरूपण किया है । यही नहीं, उनके स्वस्तिक आदि भोगों के उत्तम चिह्न, भोगों की सम्पन्नता, प्रशस्त सौम्यरूप और दर्शनीयता का निरूपण करने के साथ-साथ उनके हाथ-पैर के तलुओं, चरणों, उगलियों, नखों, गट्टों, जांघों, घुटनों, चालढाल, गुप्तांगों, कमर, नाभि, मध्यभाग, रोमराजि, पेट के पार्श्वभागों, पेट, बगलों, पसलियों, आंतों, वक्षःस्थल, जोड़ों, भुजाओं, हाथों, हस्तरेखाओं, कंधे, गर्दन, दाढ़ी-मूछों, ठुड्डी, अधरोष्ठों, दंतपक्ति, दांतों, तालु, जीभ, नाक, आँखों, भौहों, कानों, कपोल, ललाट, चेहरा, मस्तिष्क, मस्तक के अग्रभाग, खोपड़ी, बाल आदि नख से लेकर शिखा तक के तमाम अंगप्रत्यंगों का स्पष्ट निरूपण किया है । इतने विस्तृत निरूपण से यह स्पष्ट हो जाता है कि भोग का प्रमुख साधन उनका शरीर अपने आप में समस्त अंगोपांगों के सहित स्वस्थ, सशक्त, पुष्ट, बलिष्ठ, परिपूर्ण, योग्य तथा प्रशस्त बत्तीस लक्षणों से युक्त, उत्तमोत्तम लक्षणों और व्यंजनों से सम्पन्न, वज्रऋषभनाराचसंहनन और समचतुरस्रसंस्थान से युक्त था। इसी प्रकार उनके शरीर की कान्ति,उनकी आवाज,शरीर की सुगन्ध, भोजन हजम करने की शक्ति, अमृतमय रसीले फलों का आहार, तीन गाऊ की ऊँचाई,
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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