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चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य-आश्रव
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व्याख्या विस्तृत वर्णन करने के पीछे रहस्य-पूर्व सूत्रपाठ में अधंचक्रवर्ती, पूर्णचक वर्ती, बलदेव, वासुदेव के भोगों, वैभवों तथा सुखसाधनों का विस्तृत वर्णन करने के बाद इस सूत्रपाठ में भी मांडलिक नपों तथा देवकुरु-उत्तरकुरु के मानवों की सुख सम्पदा, शरीरसम्पदा और भोगों के साधनों का विस्तृत वर्णन किया है, इसके पीछे क्या रहस्य है ?
वास्तव में इतने विस्तृत वर्णन के पीछे शास्त्रकार का यही आशय प्रतीत होता है कि संसार के प्रायः सभी प्राणी अब्रह्मचर्यसेवन को म्रान्तिवश आत्मा के लिए संतोष और सुख का साधन समझते हैं और इसकी पूर्ति के लिए वे सभी प्रकार के साधन जुटाने और तरह-तरह से उखाड़-पछाड़ करने में अपनी ओर से कोई कोरकसर नहीं रखते । वे इसमें अपनी पूरी ताकत का उपयोग करते हुए दिखाई देते हैं। वे प्रायः यही समझते हैं कि हमें अब तक इसके अनुकूल सामग्री नहीं मिली है, इसलिए हम पूर्ण तृप्ति के आनन्द का अनुभव नहीं कर सके । यदि हमें कामभोग-सेवन की उत्तम और प्रचुर सामग्री मिल जाती तो हम उसका यथेच्छ सेवन करके संतुष्ट हो जाते । लेकिन उनकी यह मान्यता आग को शान्त करने के लिए उसमें घी की आहुति डालने के समान है। जैसे आग में घी की आहुति डालने से वह और ज्यादा भड़कती है; वैसे ही विषय-वासना की आग को शान्त करने के लिए भोगोपभोग के अनेकानेक साधनों को जुटाने और उनका सेवन करने से भी वह शान्त होने के बदले और ज्यादा भड़कती है । इसी बात को स्पष्ट करने हेतु शास्त्रकार ने पूर्वोक्त सभी पुण्यशालियों और भोग की उत्तमोत्तम साधन-सामग्री वालों का दृष्टान्त विस्तृतरूप से दे कर बताया है कि जिनके पास यौवन, शारीरिक बल, सौन्दर्य, धन-जन की अपार शक्ति और प्रभुता थी; भोग के एक से एक बढ़कर उत्तम साधन थे; हर तरह की मनचाही भोगसामग्री प्राप्त करने के लिए जिनके पास धनसम्पत्ति का अखूट खजाना था; हजारों सुन्दरियाँ उनके चित्त को प्रफुल्लित रख कर कामसुख को बढ़ाने के लिए सेवा में हाजिर रहती थीं; देवदुर्लभ क्रीड़ाएँ करने के लिए जल, स्थल और नभ के सभी क्रीड़ास्थल उनके लिए खुले थे, हजारों राजा उनकी आज्ञा शिरोधार्य करते थे, जो बल, बुद्धि, धन, साधन, सौन्दर्य, प्रभुत्व आदि में किसी से कम नहीं थे; फिर भी वे अर्धचक्री, पूर्णचक्री, बलदेव, वासुदेव, मांडलिक नृप या उत्तरकुरु-देवकुरु क्षेत्र के भोगप्रधान मानव विषय भोगों से संतुष्ट न हो सके। वे असंतुष्ट हालत में ही इस संसार से बिदा हो गए। तब भला, साधारण आदमी की क्या विसात है कि वह यथेच्छ भोग-सामग्री जुटा कर उससे संतुष्ट हो ही जायगा ? जब इतने बड़े बड़े भाग्यशाली समर्थ मानव भी अब्रह्मसेवन से संतुष्ट नहीं हुए तो तुम जैसा साधारण मानव या प्राणी कैसे संतुष्ट हो जायगा ? इसलिए इस भ्रान्ति को मन से