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________________ ३८० श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र पदार्थान्वय-(भुज्जो) तथा (सबल) बल या सैन्य के सहित, (सअंतेउरा) अन्तःपुर-रनवाससहित, (सपरिसा) परिषदों या परिवार के सहित, (सपुरोहियाऽमच्च-दंडनायक-सेनावति-मंतनोतिकुसला) शान्तिकर्मकर्ता. पुरोहितों, अमात्यों--- मंत्रियों, दंडनायकों-दंडाधिकारियों-कोतवालों, सेनापतियों तथा मंत्रों—गुप्त परामर्शों के करने में और नीति में कुशल व्यक्तियों के सहित, (नाणामणिरयण-विपुलधण-धन्नसंचय-निहीसमिद्धकोसा) अनेक प्रकार की मणियों, रत्नों, विपुलधन और धान्यों के संग्रह और निधियों से जिनके खजाने समृद्ध-परिपूर्ण हैं, (विपुलं रज्जसिरिमणुभवित्ता) अत्यधिक राज्यलक्ष्मी का अनुभव–उपभोग करके (विक्कोसंता) दूसरों को कोसने वाले–रुलाने वाले अथवा कोशरहित हो कर या विशिष्ट कोश वाले हो कर, (बलेण मत्ता) बल से गर्वित, ऐसे जो (मंडलियनरवरेंदा) मांडलिक नरेन्द्रमंडलाधिपति राजा होते हैं, (तेवि) वे भी (कामाणं) कामभोगों से (अवितित्ता) अतृप्त हुए ही (मरणधम्म) काल-धर्म-मृत्यु को, (उवणमंति) प्राप्त होते हैं । (भुज्जो) इसी तरह फिर, (उत्तरकुरु-देवकुरु-वणविवरपादचारिणो) देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्रों (उपचार से हैमवत, रम्यकवर्ष, हरिवर्ष और ऐरण्यवत आदि क्षेत्रों) के वनों, गुफाओं और आरामों आदि में पैदल विचरण करने वाले, जो (नरगणा) यौगलिक मनुष्यसमूह हैं, वे (भोगुत्तमा) भोगों से उत्तम अर्थात् उत्तम भोगों से सम्पन्न होते हैं, (भोगलक्खणधरा) भोगों के सूचक स्वस्तिक आदि लक्षणों के धारक होते हैं, (भोगसस्सिरिया) भोगों से शोभायमान होते हैं, (पसत्थसोमपडिपुण्णरूवरिसणिज्जा) श्रेष्ठ मंगलमय सौम्य-शान्त और परिपूर्ण रूपसम्पन्न होने से दर्शनीय होते हैं, (सुजातसव्वंगसुंदरंगा) उत्तम रूप से बने हुए सब अवयवों से सर्वांगसुन्दर शरीर वाले होते हैं । (रत्त प्पल-पत्त-कंत-कर-चरण-कोमलतला) उनकी हथेली और पैरों के तलए लालकमल के पत्तों की तरह रक्ताभ और कोमल होते हैं, (सुपइट्ठियकुम्मचारुचलणा) उनके चरण-पैर कछुए के समान सुस्थिर और सुन्दर होते हैं, (अणुपुव्वसुसंहयंगुलीया) उनकी उंगलियाँ अनुक्रम से बड़ी और छोटी सुसंहत-सघन छिद्र रहित होती हैं। (उन्नयतणुतंबनिद्धनखा) उनके नख उन्नत-उभरे हुए, पतले, लाल, और चिकनेचमकीले होते हैं, (संठितसुसिलिट्ठगूढगोंफा) उनके पैरों के गट्ट-गुल्फ सुस्थित, सुघड़ और मांसल होने से दिखाई नहीं देने वाले होते हैं। (एणीकुरुविंदवत्तवट्टाणुपुग्विजंघा) उनको जांघे हिरनी की जांघ, कुरुविंद नामक तृणविशेष और वृत्त-सूत कातने को तकली के समान क्रमशः वर्तुल और स्थूल होती है। (समुग्गनिसग्गगूढ
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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