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________________ चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य-आश्रव ३८१ जाणू) उनके घुटने डिब्बे व उसके ढकने के समान स्वाभाविकरूप से मांसल होने से गूढ होते हैं। (वरवारणमत्ततुल्लविक्कमविलसियगती) उनकी चाल - गति मदोन्मत्त उत्तम हाथी के समान मस्त तथा पराक्रम और विलास से युक्त होती है। (वरतुरगसुजायगुज्झदेसा) श्रेष्ठ घोड़े की-सी सुनिष्पन्न, लघु और गुप्त उनकी जननेन्द्रिय-लिंग होती है, (आइन्नहयव्व निरुवलेवा) आकीर्ण - उत्तमजाति घोड़े के गुदाभाग की तरह उनका गुदाभाग मलद्वार मल के सम्पर्क से रहित होता है, (पमुइयवरतुरगसीहअतिरेगवट्टियकडी) उनकी कमर हृष्टपुष्ट श्रेप्ट घोड़े और सिंह की कमर से भी बढ़कर गोल होती है। (गंगावत्तदाहिणावत्ततरंगभंगुररविकिरणबोहियविकोसायंतपम्हगंभीरविगडनाभी) उनकी नाभि गंगानदी के आवत-भंवर एवं दक्षिणावत--चक्कर वाली तरंगों के जाल के समान तथा सूर्य किरणों के द्वारा खिले हुए पद्म-कमल की तरह गम्भीर और विकट-विशाल होती है, (संहतसोणंद (सोणद) मुसलदप्पणनिगरियवरकणगच्छरुसरिस-वरवइरवलियमज्झा) उनके शरीर का मध्यभाग सिकुड़ी हुई दतौन अथवा समेटी हुई लकड़ी की तिपाई, मूसल, दर्पण और मूष में शोधे -- तपाये हुए श्रेष्ठ सोने की बनी तलवार आदि की मूठ के समान तथा उत्तम वज्र की तरह पतला होता है। (उज्जुगसम-सहिय - जच्च-तण - कसिणणिद्ध-आदेज्ज-लडह-सूमाल-मउयरोमराई) उनके शरीर पर सीधी और लंबाईचौड़ाई में एकसरीखी, परस्पर सटी हुई, स्वभाविकरूप से बारीक, काली, चिकनी तथा प्रशंसनीय सौभाग्यशाली पुरुषों के योग्य सुकुमार और मृदुमुलायम रोमराजि---रोओं की पंक्ति होती है । (झसविहगसुजातपीणकुच्छी) उनके दोनों पार्श्वप्रदेश मछली और पक्षी के पार्श्वप्रदेश-कुक्षि की तरह सुन्दर वमोटे होते हैं । (झसोदरा) उनका पेट मछली के समान, (पम्हविगडनाभिसंनतपासा) कमल के समान गहरी उनकी नाभि है तथा दोनों बगलें नीचे की ओर झुकी हुई हैं, इसलिए (संगयपासा) उनके दोनों पार्श्व ठीक संगत होते हैं । (सौंदरपासा) उनकी बगलेंपार्श्व सुन्दर हैं, (सुजातपासा) योग्य गुणों से युक्त बगलें हैं (मितमाइयपीणरइयपासा) उनके पार्श्व (बगलें) मानोपेत परिणाम से युक्त-न्यूनाधिकता से रहित हैं, परिपुष्ट हैं, (अकरंडुयकणगरुयगनिम्मलसुजायनिरुवहयदेहधारी) वे ऐसे शरीर को धारण किये होते हैं, जिनकी पीठ और बगल की हड्डियां मांस से ढकी हुई हैं, तथा जो सोने के आभूषण की तरह निर्मल कान्तियुक्त तथा सुन्दरता से बना हुआ और नीरोग होता है । (कणगसिलातलपसत्थसमतल उवइयविच्छिन्नपिहुलवच्छा)
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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