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________________ चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य-आश्रव ३७५ अटल नहीं रहता, उसका जीवन तेजस्वी नहीं होता, अपितु वह मायूस, उदास, निराश और सत्त्वहीन जीवन होता है । श्रीकृष्ण का जीवन चमकता हुआ जीवन था। (१५) मधुर, गंभीर और स्निग्ध आवाज—यह विशेषता भी उत्तम व्यक्तित्व की चिह्न है, जो श्रीकृष्णजी के जीवन में थी। (१६) सुन्दर मस्त चाल-मनुष्य की चालढाल को देख कर उसके आचरण या चरित्र का बहुत-सा पता लग जाता है । श्रीकृष्ण की हाथी जैसी मस्त, ललित और मन्थर चाल उनके जीवन में एकाग्रता और व्यवस्थितता को सूचित करती थी। __(१७-१८) लक्षणों और व्यंजनों से युक्त तथा मानोन्मानपूर्वक सर्वांग-सुन्दर शरीर-शरीर भी मनुष्य के जीवन का प्रतिबिम्ब है। शरीर पर स्थित लक्षण और व्यंजन (तिल, मष आदि) तथा शरीर का सुन्दर गठन और अंगों की परिपूर्णता आदि भी उसे पहिचानने के लिए बहुत बड़े निमित्त हैं। जैसे घुटने तक की लम्बी भुजाएँ, चौड़ी छाती, विशाल भाल, विशाल नेत्र, चौड़े कंधे, उन्नत ललाट आदि शुभ लक्षण कहलाते हैं, इसी प्रकार शरीर पर होने वाले तिल, मष, रेखाएँ, लहसुन आदि व्यंजन कहलाते हैं। श्रीकृष्णजी में यह गुण सविशेष थे। .. ये और इस प्रकार के कुछ अन्य खास गुण बलदेव और वासुदेव में होते थे, जिनका शास्त्रकार ने मूल में उल्लेख किया है । तभी तो वे भोगों के बीच रहते हुए भी अपने जीवन को दीर्घायु और गुणसम्पन्न रख सके । अन्यथा, वे इस संसार से कभी के मिट गये होते ; सुरा, सुन्दरी आदि के चक्कर में पड़ने वाले कई निरंकुश राजाओं की तरह वे भी बर्बाद हो गए होते। इनके विशेष चिह्न-पांच जन्य शंख, सुदर्शन चक्र, कौमोदकी गदा, नन्दक तलवार और · सारंग धनुष इनके अतीव विशिष्ट शक्तिसम्पन्न होते हैं। प्राचीनकाल में राजा लोग ध्वजा पर अपना खास चिह्न अंकित करते थे । बलदेव की ध्वजा पर ताड़ के वृक्ष का तथा श्रीकृष्णजी की ध्वजा पर गरुड़ का चिह्न अंकित था । उनका वक्षस्थल श्रीवत्स लांछन और एकावली हार से सुशोभित रहता था। वे गले में वनमाला डाले रहते थे। इनके विशिष्ट राजचिह्न होते हैं-छत्र और चंवर ! इन दोनों का शास्त्रकार ने विशद निरूपण किया हैं, उन पंक्तियों का अर्थ मूलार्थ में स्पष्ट कर दिया गया है। निष्कर्ष—इस प्रकार बलदेव-वासुदेव के वैभवों, गुणों, शक्ति और भोगों के साधनों के विस्तृत निरूपण का निचोड़ यही है कि इतने सुखसाधन व भोग मिल जाने पर भी जब बलदेव और वासुदेव जैसे उच्च व्यक्ति अब्रह्मचर्य के मार्ग में फिसल गए तो फिर सामान्य मानव की तो बिसात ही क्या है ?
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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