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________________ ३७४ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र आत्मीय हो जाते हैं, अपनी दृष्टि में उसे कोई पराया लगता ही नहीं। श्रीकृष्णजी में बचपन से ही माता यशोदा से प्राप्त वात्सल्य का गुण संस्काररूप से उतर आया था। वे पिछड़ी जातियों, दुर्बलों, गाँवों, गायों तथा नारीजाति के प्रति हमेशा वात्सल्य बहाते रहे। (१०) शरण्य—शरण में आये हुए को शरण दे देना भी महान् उदारता और त्याग का काम है । स्वार्थी और अनुदार मनुष्य सहसा ऐसा नहीं कर सकता। वह किसी भी शरणागत को उससे अपना स्वार्थ सिद्ध न होता देख ठुकरा देता है। श्री कृष्णजी तो इस विषय में उदार और शरणागतवत्सल थे। . (११) अमर्षण–अपराध या गल्ती को नजरअंदाज कर देना दुर्बल और स्वयं दुर्गुणी व्यक्ति का काम होता है। जो व्यक्ति स्वयं सद्गुणी और सिद्धान्तों पर दृढ़ होगा ; वह अपने या दूसरे के अपराधों की कभी उपेक्षा नहीं करेगा । यही बात . श्रीकृष्ण में थी । अथवा प्राकृत 'अमरिसण' का संस्कृत रूप 'अमसृण' भी हो सकता है। जिसका अर्थ होता है, महत्त्वपूर्ण कार्यों में आलस्य न करना। किसी कार्य को दुर्लक्ष्य करके समय से आगे ठेल देने पर वह कार्य वर्षों तक पूरा नहीं हो पाता । दीर्घसूत्रता या कार्य में ढिलाई ही जीवन को महान् बनने में विघ्न बनती है। श्रीकृष्णजी के जीवन में कर्मयोग और पुरुषार्थ तो कूट-कूट कर भरा था। (११) दण्ड देने में गंभीर—किसी को बिना बिचारे झटपट मनचाहा दण्ड दे डालना अन्याय है । कमजोर होने के कारण चाहे कोई व्यक्ति शक्ति के आगे झुक जाय और चुपचाप उस अन्याय को पी ले ; लेकिन अन्ततः उसका मन विद्रोह कर बैठता है, उसके हृदय में प्रतिक्रिया अवश्य पैदा होती है। इसलिए महान् व्यक्ति किसी को दण्ड देते समय पूरा न्याय तौल कर ही निर्णय करते हैं। श्रीकृष्ण में यह गुण अधिक विकसित था। (१३) सौम्य आकृति, मधुर मनोरम दर्शन और गंभीर हृदय-ये तीनों गुण मनुष्य के उन्नत व्यक्तित्व के परिचायक होते हैं। जो व्यक्ति छिछला, उच्छृखल, क्रोधी या वाचाल होगा, उसमें ये गुण प्रायः नहीं होते । कहावत है_ 'वक्त्रं वक्ति हि मानसम्' यानी मुख हमेशा मन के भावों को प्रगट कर देता है। श्री कृष्णजी में ये गुण सदा रहे हैं। इसीलिए वे अपने मधुर व्यक्तित्व से लाखों लोगों को आकर्षित कर सके। 'आकृतिगुणान् कथयति' इस न्याय से आकृति से गुणों का पता लग जाता है। (१४) चमकता हुआ उत्तम तेजस्वी जीवन-यह महान् जीवन की निशानी है। जिसके जीवन में कोई दम नहीं होता, जो बातबात में अपने वचन से हट जाता है, सिद्धान्तों को ताक में रख कर समझौता करने लग जाता है, व्रत-नियमों पर
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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