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________________ चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य-आश्रव वरणयणहिययदइया) सोलह हजार सुन्दर नयनों वाली देवियों - महारानियों के हृदयों के प्रिय (णाणामणिकणगरयणमोत्तियपवालधणधन्नसंचयरिद्धिसमिद्धकोसा) जिनके कोश-खजाने अनेक प्रकार की मणियों, सोने, रत्न, मोती, मूगे, धन और धान्य के संचयरूप ऋद्धि से समृद्ध-परिपूर्ण हैं, (हयगयरहसहस्ससामी) जो हजारों हाथियों, घोड़ों और रथों के स्वामी हैं, (गामागर-नगर-खेड-कव्वड-मडंब-दोणमुहपट्टणासम-संवाहसहस्सथिमियणिव्वुय-पमुदितजणविविहसासनिप्फज्जमाणमेइणि - सरसरिय-तलाग-सेल-काणण-आरामुज्जाण-मणाभिरामपरिमंडियस्स) हजारों गाँवों, खानों, नगरों, खेड़ों (धूल के कोट वाले नगरों), कर्बटों-कस्बों, मडंबों (जहां ढाई योजन तक कोई बस्ती न हो), द्रोणमुखों-बंदरगाहों, पत्तनों-मंडियों, आश्रमों, संवाहों-- सुरक्षा के लिए बने हुए किलों में स्वस्थ, स्थिर, शान्त और प्रमुदित लोग रहते हैं, जहाँ विविध प्रकार के अन्न पैदा करने वाली भूमि है, बड़े-बड़े सरोवर हैं, नदियाँ हैं, छोटे-छोटे तालाब हैं, पर्वत हैं,वन हैं, दम्पतियों के क्रीड़ा करने योग्य लतामंडपसहित बगीचे हैं, फुलवाड़ियाँ हैं, और इन उपर्युक्त मनोहर गाँवों आदि से सुशोभित, (दाहिणड्ढवेयड्ढगिरिविभत्तस्य) जिसका दक्षिण की ओर का आधा भाग वैताढ्य पर्वत से विभक्त है, लवणसमुद्र से वेष्टित-घिरा हुआ है, (छव्विहकालगुणकामजुत्तस्स) छही प्रकार की ऋतुओं के कार्यों (क्रम) के होने वाले अत्यन्त सुख से युक्त (अद्धभरहस्स) अर्ध भरतक्षेत्र के (सामिका) स्वामी हैं; वे (धीर-कित्तिपुरिसा) धैर्यवान और कीर्तिमान पुरुष हैं, (ओहबला) प्रवाहरूप से निरन्तर बलशाली, (अइबला) अत्यन्त बलवान्, (अनिहता) दूसरों से अपीड़ित, (अपराजियसत्तु मद्दणरिपुसहस्समाणमहणा) अपराजित शत्रुओं का भी मर्दन करने वाले तथा हजारों रिपुओं का मानमर्दन करने वाले, (साणुक्कोसा) दयावान् (अमच्छरी) मात्सर्यरहित-परगुणग्राही, (अचवला) काया की चंचलता से रहित, (अचंडा) बिना कारण कोप नहीं करने वाले, (मितमंजुलपलावा) परिमित और मृदु भाषण करने वाले, (हसियगंभीरमहुरभणिया) मुस्कान के साथ गंभीर और मधुर वचन बोलने वाले, (अब्भुवगयवच्छला) सम्मुख आए हुए व्यक्ति के प्रति वात्सल्य भाव रखने वाले, (सरण्णा) शरणागत की रक्षा करने वाले,(लक्खणवंजणगुणोववेया) शरीर पर सामुद्रिक शास्त्र में बताए हुए उत्तम लक्षणों-चिह्नों तथा तिल, मस्से आदि व्यंजनों के गुणों से युक्त, (माणुम्माणपमाणपडिपुन्नसुजायसव्वंगसुंदरंगा) मान और उन्मान से प्रमाणोपत तथा इन्द्रियों व अवयवों आदि से प्रतिपूर्ण होने से उनके शरीर के सभी अंग सुडौल और सुन्दर हैं, (ससिसोमागारकंत
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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