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________________ चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य-आश्रय ३४६ हैं, जिनकी आवाज शरत्काल के नए बादलों के गर्जन के समान मधुर, गंभीर और स्नेहभरी है। चक्ररत्नप्रमुख १४ रत्न जिनके यहाँ उत्पन्न हुए हैं । जो नौ निधियों के स्वामी हैं । जो अखूट (समृद्ध) खजाने के मालिक हैं। जिनके राज्य की सीमा तीनों ओर समुद्र तक एवं चौथी ओर हिमवान पर्वत तक है। हाथी, घोड़े, रथ और पैदल-ये चारों प्रकार की सेनाएँ उनके मार्ग का अनुगमन करती हैं, अर्थात्-उनकी आज्ञा में चलती हैं। जो घोड़ों के स्वामी हैं, हाथियों के अधिपति हैं, रथों के मालिक हैं, और मनुष्यों के नायकस्वामी हैं । जिनका कुल वहुत विशाल है, जिनकी प्रसिद्धि सारे लोक में है, जो समस्त भरतक्षेत्र के स्वामी हैं, जो धैर्यशाली हैं, जो सर्वशत्र ओं को जीतने वाले हैं, बड़े-बड़े नरेशों में जो सिंह के समान हैं। जो पूर्वजन्म में किए हुए तप के प्रभाव से युक्त हैं, जो संचित सुख का उपभोग करते हैं, जिनकी आयु सैकड़ों वर्ष लम्बी होती है, ऐसे चक्रवर्ती नरेन्द्र पर्वतों, उद्यानों . और वनों सहित उत्तर में हिमवान पर्वत तक और शेष तीन दिशाओं में समुद्र तक भरतक्षेत्र–भारतवर्ष का राज्योपभोग करते हैं तथा भारत के सभी जनपदों की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी अपनी पत्नियों के साथ भोगविलास करते हैं और अनुपम शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध सम्बन्धी पंचेन्द्रिय-विषयों का अनुभव करते हैं । ऐसे चक्रवर्ती भी कामभोगों से अतृप्त हो कर ही कालधर्म (मृत्यु) को प्राप्त करते हैं। व्याख्या शास्त्रकार ने इस सूत्रपाठ में विस्तृत रूप से यह बताया है कि अब्रह्मचर्य के सेवन करने वाले कामरसिक लोग कौन-कौन हैं और उनके तौरतरीके, ठाठबाठ, वैभव, प्रभाव, वस्त्राभूषण, रहन-सहन आदि कैसे होते हैं ? वर्णन इतना सजीव है कि पढ़ते-पढ़ते भारत के भूतपूर्व राजाओं और रईसों की स्मृति ताजा हो जाती है । इसलिए जितना भी वर्णन है, वह स्वाभाविक लगता है, आश्चर्यजनक नहीं । इस वर्णन से और अनुभव से ऐसा लगता है कि कामी-भोगी लोगों के जीवन के साथ ये ठाठबाठ, वेशभूषा, आडम्बर और रागरंग बधे हुए हैं। इनके बिना उनका एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता। जानबूझ कर भी अब्रह्मचर्य के कीचड़ में क्यों ?-प्रश्न होता है, ये देव और वैभवशाली मनुष्य अब्रह्मचर्यसेवन का कटुफल अनुभव करते हैं, स्त्रियों को ले कर बड़े-बड़े युद्ध तक होते हैं, मानसिक संक्लेश की कोई सीमा नहीं रहती, कभी-कभी
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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