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________________ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र तो जीवन भी संकट में पड़ जाता है, फिर ये सब जानते-बूझते हुए भी अब्रह्मचर्य का पल्ला क्यों पकड़े रहते हैं, इन्हें इस बुरे कार्य से विरक्ति क्यों नहीं होती ? इसके उत्तर में शास्त्रकार कहते हैं—'मोहमोहितमती' यानी इन सबकी बुद्धि मोह के घने कुहरे से ढकी रहती है। मोहाच्छन्न व्यक्ति अपने भले-बुरे, हानि-लाभ, कार्य-अकार्य और हिताहित का विचार नहीं कर पाता। यही कारण है कि चारित्रमोहनीय कर्म के तीव्र उदय के कारण देव और देवांगनाएं दोनों अब्रह्मचर्य का त्याग नहीं कर सकते और न वे मनुष्य ही सहसा अब्रह्मचर्य को तिलांजलि दे पाते हैं, जो सुखवैभव में पल रहे हैं, जिनके पास अपार धनराशि है, अतुल वैभव है, हजारों नौकर-चाकर या दास-दासियाँ हैं, सुख के एक से एक बढ़ कर साधन हैं, नितनये शृंगार सजे जाते हैं, राग-रंग में ही जिनका अधिकांश जीवन बीतता है. भोगविलास और आमोदप्रमोद ही जिनके जीवन का सर्वस्व है। मतलब यह है कि जहाँ सुख-साधनों की प्रचुरता है, ऐश्वर्य और वैभव के अंबार खड़े हैं, जहाँ एक देव या एक पुरुष के अधीन हजारों देवांगनाएँ या नारियाँ रहती हैं, ऐसे लोग अधिक से अधिक कामभोगों में लीन रहते हैं, अपने जीवन में वे भौतिक सुखोपभोग को ही प्रधानता देते हैं, रातदिन विषयभोगों के ही सपने लेते रहते हैं, सुन्दरियों की ही टोह में रहते हैं। संसार में चारगतियाँ हैं-नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति । इन चारों में से सबसे ज्यादा सुख-साधन और ऐश्वर्य की प्रचुरता देवगति में है, इसीलिए शास्त्रकार ने सर्वप्रथम देवलोक के देव-देवियों में कामभोग की तीव्र वासना का उल्लेख किया है'सुरगणा सअच्छरा। देवों में अधिक विषयलालसा क्यों ?–प्रायः यह देखा गया है कि जो जितना अधिक सुख में पलता है, वह अधिकतर अब्रह्मचर्य का शिकार होता है । वह न तो साधु के महाव्रतों को ग्रहण कर सकता है और न श्रावक के अणुव्रतों को । यही कारण है कि देवगति के देव-देवी व्रतों को जरा भी ग्रहण नहीं कर सकते । मन में विचार उठते ही उनकी इच्छानुसार भोगों की साधन-सामग्री कल्पवृक्षों से उपलब्ध हो जाती है । आहार (भोजन) की इच्छा होते ही उनके कंठ में अमृतमय आहार उपस्थित हो जाता है और उनकी तृप्ति हो जाती है। इसीलिए शास्त्रकार ने देवों के लिए ही 'मोहमोहितमती' विशेषण का प्रयोग किया है। देवों का अधिकतर समय कामक्रीड़ाओं में ही बीतता है। विविध उपायों से विषयसेवन करने में ही वे मशगूल रहते हैं । इन्द्रियों के उत्तम से उत्तम शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्शरूप विषय और उनकी प्राप्ति के लिए, श्रेष्ठसाधन वहाँ मौजूद हैं ही। इसलिए उन्हें वहाँ विषयों की प्राप्ति के लिए अधिक प्रयास नहीं करना
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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