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चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य-आश्रय
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इन सब बातों का विरोधी है। इसलिए अब्रह्मचर्य का एक नाम, 'ब्रह्मचर्यविघ्न' रखा है ; यह ठीक ही है।
___ 'वावत्ति'-बुरे विचारों, बुरे कार्यों और बुरी वाणी से संसार में अनर्थ पैदा होते हैं, ये अशान्ति और आफत के कारण हैं। अब्रह्मचर्य भी इन तीनों बुराइयों का मूल है। इसलिए व्यापत्ति-बड़ी आपत्ति-महा-अनर्थ का कारण होने से इसे अब्रह्म का पर्यायवाची बताया है।
_ विराहणा'—अब्रह्मचर्य से आत्मा के ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य आदि शक्तियों की, सद्गुणों की विराधना होती है। आत्मा के शुद्धभाव, वीतरागता, ब्रह्मचर्य, स्वभावपरिणति आदि का घात अब्रह्मचर्य से होता है। इसलिए सद्गुणों की विराधना का कारण होने से इसे अब्रह्म के समकक्ष बताया गया है।
पसंगो-अब्रह्मचर्य स्त्री आदि हेय पदार्थों में आसक्ति पैदा करने कारण है ; इसलिए इसे 'प्रसंग' कहा है। अथवा स्त्री आदि कामोत्तेजक पदार्थों या वातावरण का अनुचित और अतिसंसर्ग करने से अब्रह्माचरण होता है ; इसलिए प्रसंग' अब्रह्माचरण का कारण होने से इसे अब्रह्म का पर्यायवाची बताया है।
' 'कामगुणो'-जब चित्तभूमि में कामवासनारूपी बीज बोया जाता है,तभी उसके फलस्वरूप मैथुन की प्रवृत्ति होती है । काम बीज है और मैथुन उसका फल । इसलिए कामगुण (कामवासना) अब्रह्म का बीज होने से उसे अब्रह्मचर्य का साथी बताया है। अथवा काम यानी कामनाओं का गुणन-बारबार आवृत्ति करने वाला होने से इसे कामगुण कहना भी सार्थक है । क्योंकि अब्रह्मचर्य सेवन करने वाले का मन और बद्धि ये दोनों स्थिर नहीं रहते, उसके मन में नाना प्रकार की इच्छाएँ-कामनाएँ उठती रहती हैं ; एक की पूर्ति हुई, न हुई कि दूसरी इच्छा तैयार खड़ी रहती है । उसके पश्चात् तीसरी। इस प्रकार कामनाओं का तांता लगा रहता है। इसलिए अब्रह्म को कामनाओं की बारबार आवृत्ति का कारण होने से कामगुण कहना संगत ही है।
इस प्रकार अब्रह्म के तीस सार्थक नामों की व्याख्या की गई है । इसके ये और ऐसे अन्य मन्मथ, मदन आदि अनेक नाम होते हैं। परन्तु विस्तार के भय से शास्त्र- . कार ने संक्षेप में ही दिग्दर्शन कराया है। .
अब्रह्मसेवनकर्ता कौन और कैसे ? पूर्वसूत्रपाठ में शास्त्रकार अब्रह्म के सार्थक नामों का निरूपण कर चुके ; अब अगले सूत्र में वे क्रमशः अब्रह्मचर्यसेवन-कर्ता कौन-कौन हैं और वे किस-किस तरह से इसका सेवन करते हैं ; यह बताते हैं ।