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________________ ३२६ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र का छूटना दुष्कर है, वैसे ही काम के पाश और जाल से छूटना भी कठिन है । कहा भी है सन्मार्गे तावदास्ते प्रभवति पुरुषस्तावदेवेन्द्रियाणाम्, लज्जां तावद् विधत्ते, विनयमपि समालम्बते तावदेव । भ्रूचापाकृष्टमुक्ताः श्रवणपथजुषो नीलपक्ष्माण एते । यावल्लीलावतीनां न हृदि धृतिमुषो दृष्टिबाणाः पतन्ति ॥ अर्थात् —यह पुरुष तब तक ही सन्मार्ग में लगा रहता है, तब तक ही इन्द्रियों पर विजय पाता है, तब तक ही लज्जा रखता है और विनय करता है; जब तक उस पर युवती नारियों के भौंह रूपी धनुष से खींच कर फेंके गए तथा कान तक पहुंचे हुए धैर्य को हरने वाले, नीले पक्ष्म वाले दृष्टिबाण ( काम के बाण ) नहीं पड़ते हैं । उसकी वहीं नैतिकमृत्यु हो जाती है । 1 इसीलिए जिस प्राणी के जीवन में अब्रह्मचर्य ने स्थान पा लिया है, उसे चाहे जितना मारा-पीटा जाय, सताया जाय या बंधन में डाला जाय, अथवा प्राणरहित कर दिया जाय; उसका अब्रह्मचर्य के कुसंस्कार से सर्वथा बच निकलना मुश्किल है; क्योंकि इसका चेप ही इतना गाढ़ है कि छूटना कठिन होता है । कहा भी है 'किंकिण कुण, किं किं न भासए चितए वि य न कि कि ? | विहलंघलिउथ्व पुरिसो विसयासत्तो मज्जेण ॥' अर्थात् — मद्य से मत्त पुरुष की तरह विषयासक्त पुरुष क्या-क्या नहीं करता ? क्या-क्या नहीं बोलता ? क्या-क्या नहीं सोचता ? इसी बात को 'वधबंधविघातदुविघायं' और 'दुरंतं' इन दो पदों में शास्त्रकार स्वयं कहतें हैं । अब्रह्मचर्य से कायिक, मानसिक और आत्मिक हानियाँ - अब्रह्मचर्य जीवन का सर्वनाश करने वाला है । जो व्यक्ति इसके चंगुल में फंस जाता है, वह वीर्यनाश करके शरीर की शक्ति को खत्म कर बैठता है । वीर्यं शरीर की शक्ति का मूल है । अगर वीर्य का अधिक नाश हो जाता है तो अशक्त हो जाने के कारण मनुष्य क्षयरोग, हृदयरोग, मंदाग्नि आदि अनेक बीमारियों का शिकार बन जाता है, कहा भी है— 'कम्पः स्वेदः श्रमो मूर्च्छा, भ्रमिग्लानिर्बलक्षयः । राजयक्ष्मादिरोगाश्च भवेयुमैथुनोत्थिताः ॥' 'अब्रह्मचर्य से कंपन, पसीना, थकान, मूर्च्छा, चक्कर आना, घबराहट, कमजोरी एवं टी. बी. आदि बीमारियां पैदा होती हैं ।' उसे असमय में ही बुढ़ापा आ घेरता है । वीर्यनाश करने वाला व्यक्ति रातदिन निराश, चिन्तातुर और उत्साहहीन बना रहता है । वह किसी भी अच्छे कार्य को करने का साहस नहीं कर सकता । उसके चेहरे पर सदा मायूसी छाई रहती है । एक आचार्य ने कहा है
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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