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चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य-आश्रव
३२७ 'जो सेवइ कि लहई, थामं हारेइ, दुब्बलो होइ ।
पावेइ वेमणस्सं दुक्खाणि य अत्तदोसेणं ॥' 'मैथुनसेः न से क्या लाभ होगा ? मनुष्य अपने उत्साह और स्फूर्ति को खो देता है, दुर्बल हो जाता है। मन में ग्लानि पाता है और अपने आपकी इस गलती से अनेक दुःख पाता है।' यह तो हुई शारीरिक और मानसिक हानियाँ ; जिनका संकेत शास्त्रकार ने स्वयं किया है—'जरामरणरोगसोगबहुलं' । अब आध्यात्मिक हानि की बात सुन लीजिए। जिसके जीवन में अब्रह्मचर्य ने अड्डा जमा लिया है, उसकी आत्मा दुर्बल हो जाती है, उसमें आत्मविश्वास नाममात्र को भी नहीं होता, उसके जीवन में मद, विषय, क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय, निन्दा या निद्रा और विकथा (स्त्री-भक्त-राज-देश की कुचर्चा) ये पांचों प्रमाद घुस जाते हैं और उसके चारित्रिक जीवन का सर्वनाश कर देते हैं । जीवन को मोहाच्छन्न करके सच्चे ज्ञान से, दर्शन से और शुद्ध आचरण से रहित कर देने वाले दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय घुन की तरह उसके जीवन में लग जाते हैं और वे दोनों कर्म उसकी आत्मा को विविधगतियों और योनियों में बारबार भटकाते हैं। कभी नरक में ले जाते हैं तो कभी तिर्यंचगति में भटकाते हैं । आचार्यों ने बताया है
तिव्वकसाओ बहुमोहपरिणयो, रागदोससंजुत्तो। बंधइ चरित्तमोहं दुविहंपि चरित्तगुणघाई ॥१॥ अरिहंतसिद्धचेईअतवसुअगुरुसाहुसंघपडिणीओ ।
बंधति दसणमोहं अणंतसंसारिओ जेण ॥२॥ अर्थात्—'तीव्रकषायी, अत्यन्तमोही, राग और द्वष से युक्त व्यक्ति चारित्रगुण का घात करने वाले दो प्रकार के चारित्रमोहनीयकर्म का बंध करता है। अब्रह्मचर्य का सेवन करने वाला अर्हन्त (वीतराग), सिद्ध, चैत्य, तप, श्रुत-शास्त्र, गुरु, साधु और संघ का विरोधी बन जाता है ; जिससे वह दर्शनमोहनीय कर्म का बंध करता है और उसके कारण अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण करता है।'
ये सब बहुत बड़ी आत्मिक हानियां हैं। इसी की साक्षी शास्त्रकार के ये वचन देते हैं-'भेदायतण-बहुपमायमूलं "दंसणचरित्तमोहस्स हेउभूयं ।' इसके अतिरिक्त आत्मा के विकास के लिए जो अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, कायक्लेश (धर्मपालन के लिए कष्टसहन), प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य (सेवा), स्वाध्याय, ध्यान, और व्युत्सर्ग ये १२ प्रकार के तप हैं ; अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, पांचों इन्द्रियों पर नियंत्रण, मन का निग्रह, आदि संयम के प्रकार हैं और ब्रह्मचर्य रूप हैं ; अब्रह्मचर्य (मैथुनसेवन) इनमें सदा रुकावट डालने वाला है । आत्मा के विकास के लिए महापुरुषों ने जो भी प्रक्रियाएँ या साधनाएं बताई हैं ;