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________________ चतुर्थं अध्ययन : अब्रह्मचर्य-आश्रव ३२५ लोक में क्यों नहीं होगी ? इसीलिए शास्त्रकार स्वयं कहते हैं—'उड्ढनरयतिरियतिलोक्कपइट्ठाणं ।' . मनुष्य जैसा समझदार और विवेकी प्राणी भी जब काम में इतना अधिक आसक्त हो जाता है कि उसे गम्यागम्य, समय-असमय, लाभ-हानि आदि का कोई भान नहीं रहता ; तब तिर्यञ्चों का तो कहना ही क्या ? तिर्यञ्चों में तो मनुष्य जितना विवेक और विचार नहीं है। वे कामवासना के अत्यधिक शिकार हों तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? कहा भी है 'कृशः काणः खंजः श्रवणरहित पुच्छविकलो, व्रणैः पूक्लिन्नः कृमिकुलशतैरावृततनुः । क्षुधाक्षामो जीर्णः पिठरककपालापितगलः, . शुनीमन्वेति श्वा हतमपि च हन्त्येव मदनः ॥' अर्थात्-एक कुत्ता बहुत दुबला है, काना है, लंगड़ा है, बहरा है, पूछकटा है, घावों से पीप बह रही है, सैकड़ों कीड़ों से शरीर व्याप्त है, भूख से विकल है, बूढ़ा है । पेट, कपाल और गला पिचके हुए हैं अथवा गले में पिठर-कपाल पड़ा है, तब भी वह कामविवश हो कर कुतिया के पीछे लगता है। अफसोस है, काम मरे हुए को भी मारता है।' देवों में भी काम का बोलबाला है। वहाँ भी एक-एक देव के कई देवांगनाए होती हैं। मनुष्यलोक की तरह वहां भी स्त्रियों के लिए परस्पर संघर्ष होता है और कामसुखसेवन की होड़ लगी रहती है। इसलिए शास्त्रकार का यह कथन सोलहों आने सच है कि 'सदेव मणुयासुरस्स लोयस्स पत्थणिज्ज-देवता,मनुष्य और असुरसहित सारे लोक• जगत् में इसकी अभिलाषा है,पूछ है या लोग इसे चाहते हैं । इतना इसका आकर्षण क्यों है ? दुनिया इस काम (अब्रह्मचर्य) के पीछे क्यों पागल बनी फिरती है ? इसका उत्तर आगे चल कर शास्त्रकार स्वयं ही देते हैं-'चिरपरिचियमणुगयं ।' यह अब्रह्मचर्य चिरपरिचित है,अनादिकाल से अभ्यस्त है, परम्परा से सभी प्राणी बारबार इसके सम्पर्क में आते हैं, लगातार इसके साथ सम्बन्ध बना रहा है, यह सतत प्राणी के साथ-साथ चला आ रहा है। प्राणी जहां भी जिस योनि में भी जाता है, वहाँ काम (मैथुन) उसके साथ निरन्तर रहता है, इसलिए इसका छोड़ना अत्यन्त दुष्कर लगता है ।। _ 'पंकपणयपासजालभूय- इसीलिए शास्त्रकार ने अब्रह्मचर्य (काम) को दलदलपतला कीचड़, चिपकने वाला. गाढ़ बंधन और जाल के समान बताया है । जैसे प्राणी दलदल में फंस जाने पर निकल नहीं सकता ; प्रायः वह वहीं फंस कर मर जाता है ; . वैसे ही काम के दलदल में फंस जाने पर मनुष्य सहसा निकल नहीं सकता। जैसे पाश में बंधे हुए मृगादि पशुओं का और जाल में फंसे हुए मछली आदि जलचरजीवों
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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