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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
अब्रह्म, काम, मैथुन, विषयसेवन, कुशील आदि सब समानार्थक शब्द हैं । ब्रह्म - का अर्थ आत्मा या परमात्मा होता है । ब्रह्म यानी आत्मा या परमात्मा में रमण करना अथवा आत्मा या परमात्मा की सेवा में लगना ब्रह्मचर्य कहलाता है । जिस प्रवृत्ति में · आत्मा या परमात्मा को छोड़ कर इन्द्रियविषयों का ही आसक्तिपूर्वक सेवन होता हो, शरीर पर मूर्च्छा-ममता करके उसी की सेवा में रातदिन लगे रहना होता हो, वह अब्रह्मचर्य है । जब मनुष्य शरीर और इन्द्रियों के लुभावने विषयों में आसक्त हो जाता है तो सर्वप्रथम कामवासना या मैथुनसेवन की प्रवृत्ति की ओर ही झुकता है । फिर वह जननेन्द्रिय पर संयम नहीं रखता। यही अब्रह्मचर्य है, शीलभ्रष्टता है, मैथुनसेवन है और कामवासना की प्रवृत्ति है ।
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अब्रह्मचर्य के चिह्न – किसी व्यक्ति में अब्रह्मचर्य की वृत्ति है या नहीं ? इसकी पहिचान केवल उसकी बाह्य वेशभूषा से ही नहीं होती । इसकी पहिचान के लिए शास्त्रकार ने तीन चिह्न बताए हैं— स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद – 'थीपुरिसनपुं सवेद - चिधं । जब तक स्त्री को पुरुष के साथ रमण करने की इच्छा अन्तर्मन में जागती हो, तब तक उसमें अब्रह्मचर्य की वृत्ति मौजूद है और उसको शास्त्रीय परिभाषा में स्त्रीवेद कहा गया है । जब तक पुरुष के अन्तर्मन में किसी स्त्री को देख कर उसके साथ सहवास की इच्छा जागती है या उसके प्रति आकर्षण पैदा होता है, तब तक उसमें अब्रह्मचर्य है और उसका बाह्य प्रतीक पुरुषवेद है । जब तक किसी नपुंसक को स्त्री और पुरुष दोनों के प्रति रमण की इच्छा जागती है, तब तक वहां भी अब्रह्मचर्य है, और उसकी बाह्य पहिचान नपुंसकवेद है | अब्रह्मचर्य की प्रवृत्ति की स्थूलरूप में पहिचान स्त्री और पुरुष की दिनचर्या, व्यवहार, चेष्टाएं, हावभाव या प्रवृत्ति देख कर ही की जा सकती है । स्थूलदृष्टि वाले दुनियावी लोग तो बाह्य व्यवहार - किसी पराई स्त्री के साथ व्यभिचार, बलात्कार, प्रेमालाप प्रणय आदि देख कर या पराये पुरुष के साथ किसी स्त्री का उपर्युक्त व्यवहार देख कर अब्रह्मचर्य की प्रवृत्ति को ते हैं ।
अब्रह्मचर्य की सर्वत्र धूम - आज जहां देखो, वहीं अब्रह्मचर्य की धूम मची हुई है । सिनेमाघर, नाटकशाला, वेश्यालय आदि अब्रह्मचर्य के स्थानों में एवं स्वांग - तमाशा करने वालों के यहाँ पर भीड़ लगी रहती है। मनुष्यों का इतना जमघट देख कर यही कहा जा सकता है कि लोगों की ब्रह्मचर्य की हालांकि अब्रह्मचर्य से होने वाले नुकसानों को उनमें से भी मन की कामवृत्ति एवं व्यसन के कारण उनके के बजाय उन अधर्मस्थानों की ओर ही ज्यादा बढ़ते हैं। मनुष्यलोक में ही जब अब्रह्मचर्य की इतनी प्रवृत्ति है, इतना बोलवाला है, तब देवों, असुरों और तिर्यंचों के
ओर रुचि अत्यन्त कम है । बहुत से जानते भी हैं, फिर पैर धर्मस्थानों में आने