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________________ ३१८ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र वैभव,सत्कार, ठाठबाठ आदि को देख कर तरसता है; परन्तु पा कुछ भी नहीं सकता। क्योंकि उसने चोरी जैसे कुकर्म को किसी जन्म में अपना कर हजारों का धनहरण किया, उन्हें लूटा, खसोटा, सताया, मार डाला और उनका घरबार जला दिया । क्या उसका फल उसे वैसे ही रूप में नहीं मिलेगा ? अवश्य मिलेगा ! इसीलिए कई जन्मों पूर्व का वह चोर अब खुद लुटता है, पिटता है, दरिद्र बनता है, मन में जलता है, घोर अन्तराय कर्म के उदयवश वह कुछ भी प्राप्त करने में असमर्थ रहता है, अज्ञ, मूढ, नीच और कुसंस्कारी बनता है। इसी बात को शास्त्रकार मूलपाठ द्वारा उद्घोषित करते हैं-'उन्विगावासवसहि... पावकम्मकारी ""णेव सुहं णेव निव्वुति उवलभंति, अच्चंतविउलदुक्खसयसंपलित्ता . . 'अविरया।' इसका अर्थ मूलार्थ तथा पदार्थान्वय में स्पष्टरूप से किया जा चुका है। मतलब यह है कि मनुष्य चाहे जैसा कुकर्म करके यहाँ सरकार, समाज या कुल की आँखों में धूल झोंक दे; फलतः दंड से स्पष्ट बच जाय, सजा से साफ बरी हो जाय; लेकिन वे दुष्कर्म उसका पीछा नहीं छोड़ते। वे कहीं न कहीं, उसे उसका फल भुगवा कर ही छोड़ते हैं। वहाँ किसी की पेश नहीं चलती। कई बार तो ऐसे दुष्कर्म का फल हाथोंहाथ इसी जन्म में मिलता देखा जाता है। किसी ने किसी के लड़के की हत्या की, उसका इकलौता लड़का मर गया। किसी ने किसी गरीब सच्चरित्र व्यक्ति को लूटा या उसका घरबार नीलाम करवा दिया; उसकी दुराशीष के फलस्वरूप उस पापकर्म करने वाले का भी धन बीमारी, मुकद्दमेबाजी या अन्य कामों में खर्च हो गया और वह कंगाल हो गया; असाध्य बीमारी का शिकार हो गया। कर्मों के आगे किसी की पेश नहीं चलती । अतः जो यहाँ स्वयं ही अपने कृत कर्मों पर विचार करके शुद्ध हृदय से उसका प्रायश्चित्त कर लेता है वह अपने गाढ बन्धनों को हलका कर सकता है। । परन्तु यदि कोई जिद्द ठान कर अपने दुष्कर्मों में दिनोंदिन वृद्धि करता जाता है , हंसते-हंसते बेखटके पापकर्म करता जाता है, तो उसका फल उसे रो-रो कर भोगना पड़ता है। शास्त्रकार स्वर्वमेव कहते हैं—'नय अवेदयित्ता अत्थि उ मोक्खोत्ति' अर्थात्-उन दुष्कर्मों का फल भोगे बिना कोई छुटकारा नहीं। इसमें किसी के साथ भी कोई रियायत नहीं होती। 'एवमाहंसु कहेसी य अदिण्णादाणस्स फलविवागं एयं'-इसका अर्थ स्पष्ट है। इस बात से तीर्थंकर प्रभु महावीर स्वामी के प्रति शास्त्रकार ने अपनी विनय-भक्ति प्रदर्शित की हैं ; और इन वातों को उन वीतराग सर्वज्ञ प्रभु के द्वारा प्रतिपादित बता कर इस सारे वर्णन पर प्रामाणिकता की छाप लगा दी है।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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