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________________ तृतीय अध्ययन : अदत्तादान-आश्रव ३१७ वे पश्चात्ताप करते, उसका प्रायश्चित्त लेते, अपना अपराध जाहिर में प्रकट करके या चोरी का माल उसके मालिक को वापिस लौटा कर या माल न रहा हो तो उसके मालिक के सामने विनय, क्षमायाचना और अपराध स्वीकार करके उसकी क्षतिपूर्ति करते । इस प्रकार शुद्ध हो कर जीवन बिताते । परन्तु ऐसे हठी चोरों का हृदयपरिवर्तन होना अत्यन्त दुष्कर होता है । इसलिए मिथ्याशास्त्र का स्वीकार करके वे चोर जव एक बार अनार्यकर्म में प्रवृत्त हो जाते हैं तो फिर वे उन्हीं पापकर्मों से बलात् प्रेरित हो कर वैसे ही पापकर्म पुनः पुन: करते जाते हैं और उन्हीं नरक-तिर्यञ्चगतियों में परिभ्रमण करते रहते हैं। ऐसे गुरुकर्मा जीवों के उत्थान के मार्ग में यदि सबसे भयंकर कोई रोड़ा है तो वह मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व के कारण सद्बोध न होने से जीव बार-बार नरकादि योनियों में भटकता रहता है । यही आत्मा का सबसे बड़ा शत्रु है। यदि चोर अपने मिथ्यात्व को छोड़ दे तो शीघ्र ही उत्थान के मार्ग पर आ सकता है । किन्तु मिथ्यात्व का पल्ला न छोड़ने के कारण वह संसारसागर में गोते लगाता रहता है। - यही कारण है कि शास्त्रकार आगे चल कर मूलपाठ में इसी बात को द्योतित करते हैं—'नरग-तिरिय-नर-अमरगमणपेरंतचक्कवालं ....."संसारसागरं....... निच्चं उत्तत्थ-सुण्णभयसण्णसंपत्ता वसंति ।' इसका भावार्थ यह है कि वे जन्ममरण के चक्र से अत्यन्त तंग आ कर दिशाशून्य एवं भयादि संज्ञाओं के वशीभूत हो कर और कोई रास्ता न पाकर अनन्त काल तक उसी संसारसागर में जन्ममरण के गोते लगाते रहते हैं । यहाँ शास्त्रकार ने संसार के साथ समुद्र की तुलना करके गुरुकर्मा जीव की मनोदशा तथा जीवन की स्थिति का सुन्दर विश्लेषण किया है । यह वर्णन मूलार्थ व पदार्थान्वय में स्पष्ट है। यहाँ इस पर अधिक विवेचन की आवश्यकता नहीं। मानवजीवनप्राप्ति के बाद भी भयंकर सजा-मनुष्य का जीवन इतना उत्तम जीवन है कि इस जीवन में मनुष्य चाहे तो सम्यक्ज्ञान-दर्शन-चारित्र एवं तपत्याग के द्वारा पूर्वकर्मों का क्षय करके अपना जीवन शुद्ध बना कर मोक्षप्राप्ति कर सकता है; किन्तु पूर्वजन्मों में की हुई चोरी जैसी निन्द्य प्रवृत्ति का फल लाखों जन्मों में भोगने के पश्चात् मनुष्यजन्म पा लेने पर भी चोर को सच्ची राह नहीं मिलती। इसलिए मनुष्यजन्म अत्यन्त कठिनता से प्राप्त होने पर भी उसे पूर्वकृत अशुभ आचरण की सजा मिलती है और वह मनुष्य समाज में तिरस्कृत, निन्दित, अपमानित, घृणित और दीन-हीन जीवन बिताता हुआ जैसे-तैसे कष्टमय जिंदगी पूरी करता है । वह अपनी दुर्दशा पर आंसू बहाता है, अपने को कोसता है, दूसरों के
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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