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________________ ३१६ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र और सुसंस्कार मिले, जिससे कि वे कर्मों को भोगने के समय भी समभाव रखते तो अकामनिर्जरा के बदले सकामनिर्जरा होती ; यानी संवर पूर्वक कर्मों का क्षय जड़मूल से हो जाता। मतलब यह है कि नरक-तिर्यञ्चगतियों में उपर्युक्त शुद्ध वातावरण न मिलने के कारण अशुभ कर्मों का क्षय पूर्णतया न हो सका; हां, कुछ क्षय हुआ तभी तो उनके पुण्यकर्मों का अंश अधिक होने से उन्हें मनुष्यजीवन मिला। परन्तु पहले के उन जन्मों में अशुभकर्मों का वे पूरा क्षय न कर सके ; वहाँ भी परस्पर कषाय, राग, द्वेष, वैरविरोध, संघर्ष आदि के कारण अशुभकर्मों का नया जत्था और इकट्ठा कर लिया। इस कारण मनुष्यजन्म में उन अवशिष्ट अशुभकर्मों के फलस्वरूप प्रतिकूल वातावरण व प्रतिकूल परिस्थितियाँ मिलीं। इसलिए मनुष्यजन्म पा कर भी कोरे के कोरे बने रहे । मनुष्यजन्म में भी पूर्वजन्मों के कुसंस्कारवश पुनः हिंसा आदि कुमार्गों को अपना कर नरक में जाने की सामग्री इकट्ठी कर ली। उन्होंने मनुष्यभव में भी जन्ममरण की परम्परा घटाने के बजाय बढ़ा ली । आशय यह है कि एक बार आत्मा का पतन हो जाता है तो उसका पुन: उठना बहुत ही कठिन होता है । नीतिकार भर्तृहरि ने तो स्पष्ट कहा है 'विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः ।' 'विवेक से भ्रष्ट लोगों का शतमुखी पतन हो जाता है।' एक बार आत्मा विवेकभ्रष्ट हुई कि फिर वह उत्थान के साधनों से सदा वंचित रहती है ; उन्नति और विकास के अवसर उसे नहीं मिल पाते । कदाचित् मिल भी भी जांय तो वह उस ओर झांकता भी नहीं, या उनसे लाभ नहीं उठा पाता । इसी कारण उसे सदा के लिए फिर पतन के ही निमित्त मिलते जाते हैं। शास्त्रकार का तात्पर्य यह है कि जो मनुष्यजन्म पा कर चोरी आदि पापकर्मों को एक बार अपना लेता है ; और जीवन के अन्तिम समय तक अपने पापों का कोई पछतावा या आलोचना आदि नहीं करता, शुद्धि का मार्ग नहीं अपनाता ; वह पापबुद्धि मरने के बाद नरकं या तिर्यंच में जहाँ कहीं भी जाता है, उसे कोई सद्बोध, सुसंस्कार, सम्यक्त्व या सत्संग मिलना दुर्लभ होता है। उसकी बुद्धि पर कर्मों का आवरण इतना छा जाता है कि उसे वह ये चारों उत्तम बातें प्राप्त ही नहीं होने देता। धर्मसंस्कार की बातें उसे नहीं सुहाती, सत्संग करना उसे आग के पास जाने-सा लगता है, सद्बोध उससे उलटा लगता है और सम्यक्त्व तो उपादान शुद्ध हुए बिना प्राप्त ही नहीं होता। हाँ, श्रोणिकराजा की तरह यदि ये मनुष्यलोक से ही क्षायिक सम्यक्त्व साथ में ले कर नरक में जाते तो उनके लिए नरक अशुभकर्मों को क्षय करने की स्थली–तपोभूमि बन जाता । नरक तो दूर रहा ; इस लोक में भी उनके जीवन में सम्यक्त्व होता, तो चोरी जैसे कुकर्मपथ में एकाध बार चढ़ जाने पर भी
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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