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________________ तृतीय अध्ययन : अदत्तादान-आश्रव चोरी करने वाला पापी यहाँ के जेलखाने के कष्टों से कदाचित् बच जाय अथवा यहाँ के जेलखानों में उसे कदाचित् कम कष्ट मिले; परन्तु मरने के बाद जिस नरक में वह जन्म लेता है, वहाँ तो उन भयंकर कष्टों से किसी सूरत में भी बच नहीं सकता । उसे वे नारकीय कष्ट लाजिमी भोगने होते हैं। ___'ततोवि उवट्टिया तिरियजोणि, ' अणुहवंति वेयणं' नरक में वचनातीत दुःखों को भोगने के पश्चात् वहाँ से निकला हुआ दुरात्मा तिर्यंचयोनि में जन्म लेता है । यहाँ भी नरक के समान घोर कष्ट उसे चुपचाप सहने होते हैं। तिर्यंचयोनि में एकेन्द्रिय से ले कर पंचेन्द्रिय तक के जीव होते हैं। अत: यहाँ छेदन, भेदन, भूख, प्यास, परवशता आदि हजारों दुःख भोगने पड़ते हैं। यहाँ किसी के आगे वह बोल कर कुछ भी पुकार नहीं कर सकता, यहाँ न कोई उसकी सुनने वाला है, न आश्वासन देने वाला है और न उसे धर्मात्मा के सिवाय कोई बचाने वाला है। तिर्यंचयोनि में एकेन्द्रिय से ले कर पंचेन्द्रिय तक वह लाखों बार पुनः पुनः जन्म-मरण करता रहता है। दुर्भाग्य से यदि कभी निगोद में पहुंच जाता है तो अनन्त-अनन्त काल तक उसी योनि में एक श्वास में १८ बार जन्ममरण करते रह कर वचन से भी नहीं कहे जा सकें, ऐसे असह्य दुःखों को भोगता रहता है। - ते अणंतकालेण""मणयभावं लभंति णेगेहि णिरयगतिगमण-तिरिय-भवसयसहस्सपरिय हि'-इस वाक्य से शास्त्रकार ने स्पष्ट कर दिया है कि अनेकों बार नरकगति में जाने और लाखों बार तिर्यंचभव में जन्ममरण कर लेने के बाद अनन्तकाल बीतने पर सौभाग्य से यदि कदाचित् मनुष्यजन्म प्राप्त भी कर लें तो भी वे अनार्य, नीचकुलोत्पन्न, हीन आचरण वाले, अविवेकी, लोकनिन्द्य, कामभोगों में आसक्त, धर्मसंस्कारों से रहित, मिथ्याशास्त्रों का आश्रय लिये हुए एकान्तहिंसापरायण व्यक्ति बनते हैं। इसी का मूल में निरूपण किया है—'तत्थवि य भमंतऽणारिया... कामभोगतिसिया।' प्रश्न होता है कि लाखों बार नरक और तिर्यंचगति में जन्म ले लेने और भयंकरतम कष्ट सह लेने के पश्चात् भी क्या उनके ऐसे अशुभकर्म भोगने शेष रह जाते हैं, जिनके कारण उन्हें मनुष्यजन्म सरीखा उत्तमजन्म मिलने पर भी अच्छा वातावरण और पवित्र धर्मसंस्कार नहीं प्राप्त होते ? __ इसका उत्तर शास्त्रकार इस सूत्रपाठ में देते हैं—'जहि निबंधति निरयवत्तणिभवप्पवंचकरणपणोल्लिया पुणो वि संसारावत्तणेममूले।' इसका भावार्थ यह है कि नरक और तिर्यंच में जन्म लेने के कारण उन जीवों ने कष्ट तो बहुत सहे ; लेकिन बिना मन से, लाचारी से, बाध्य हो कर, रोते-रोते, बिलखते हुए सहे। इसलिए पिछले अशुभकर्मों के फल भोगने के साथ-साथ उन्होंने हाय-हाय करके नये कर्म और बांध लिये । नरक और तिर्यंचगति में उन जीवों को कहाँ सम्यक्त्व, सत्संग, सद्बोध
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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