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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
है। मिल भी जाता है तो उन्हें धर्मसंस्कार, शुद्ध आचरण का वातावरण सत्संग या अच्छी परिस्थित नहीं मिलती। यहाँ कैदखाने में उनके न चाहने पर भी बरबस पकड़ कर उन्हें रस्सों से बांध दिया जाता है और घसीट कर बाहर ला कर खाई में पटक दिया जाता है ; जहाँ भेड़िये, कुत्ते, सियार आदि, हिंसक पशु-पक्षी उनका सफाया कर देते हैं। कई लोगों को इतनी बुरी तरह से मारा-पीटा जाता है कि उनके शरीर में घाव हो जाते हैं, शरीर सड़ने लगता है, बदबू के मारे कोई भी उनके पास नहीं फटकता ; और अन्त में, उनके घावों में कीड़े पड़ जाते हैं ; जो तिलतिल करके उनके शरीर का काम तमाम कर देते हैं। इसी बात को शास्त्रकार ने व्यक्त किया है
'तत्थेव मया अकामका""विलुत्तगत्ता कुहियदेहा।' मतलब यह है कि ऐसे पापियों को न चाहने पर भी पहले तो बुरी तरह मारा-पीटा, सताया और तंग किया जाता है ; और बाद में कुमौत मारा जाता है।
पुणो परलोगसमावन्ना नरए गच्छंति- इतनी दुर्दशा और कष्टपूर्ण स्थिति में मृत्यु पाने के बाद परलोक में उन्हें अच्छी जगह नहीं मिलती। कहाँ से मिले? मरते समय जैसी लेश्या, जैसी शुभाशुभ भावना और जैसे अच्छे-बुरे परिणाम होते हैं ; तदनुसार ही स्थान का चुनाव होता है। हालांकि कई बार आयुष्य तो पहले से ही बंध जाता है । परन्तु गति के निर्णय के बावजूद भी उस गति में स्थान या स्थिति का निर्णय तो प्रायः अन्तिम समय पर ही होता है। शास्त्र में भी कहा है-'जल्लेसे मरइ तल्लेसे उववज्जई' अर्थात्-'जिस लेश्या में जीव मरता है, उसी लेश्या वाले स्थान में वह उत्पन्न होता है।'
इन चोरी जैसे कुकर्म करने वालों की भावनाएं या लेश्याएं अन्तिम समय में प्रायः नहीं बदलतीं। इसलिए इनके बारे में शास्त्रकार ने स्पष्ट कह दिया है कि मरने के पश्चात् वे पापी परलोक में भी ऐसे निकृष्ट नरक में स्थान पाते हैं, जहाँ की गर्मी और सर्दी इतनी भयंकर है कि मेरु के बराबर तांबे या लोहे का गोला वहाँ डाला जाए तो वह क्षणभर में गल जाता है। प्यास इतनी अधिक लगती है कि सारे समुद्र का पानी पीने पर भी शान्त नहीं हो सकती । भूख भी इतनी अधिक लगती है कि पृथ्वी का समग्र भोजन खाने पर भी मिट नहीं सकती। लेकिन नरक में उन्हें एक बूंद भी पानी या एक कण भी भोजन का नहीं मिलता । वहाँ की भूमि का स्पर्श भी इतना दु:खप्रद होता है; मानो हजारों बिच्छुओं ने एक साथ काटा हो। इसी प्रकार उस नरकभूमि के रस, गन्ध, रूप, शब्द आदि भी असह्य और भयंकर कष्टदायक हैं। इसका वर्णन शास्त्रकार प्रथमद्वार में कर चुके हैं। इसलिए यहाँ उसका विशेष वर्णन नहीं किया है । उसी से समझ लेना चाहिए कि नरक में जीव की क्या दुर्दशा होती है !