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________________ २९४ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र कुछ चोरों के हाथ-पैर काट कर उन्हें देश निकाला दे दिया जाता है। कुछ चोरों को जब वध्यस्थल के द्वार पर ले जाया जाता है, तब वे मौत के भय से काँपते रहते हैं । निर्दय जल्लाद उन्हें शूली की तीक्ष्ण नोंक पर चढ़ा देता है, जिससे उनका शरीर विदीर्ण हो जाता है। कई परधनहरण करने वालों को आजन्म कैद की सजा दी जाती है; जिससे वे जिंदगीभर वहाँ सड़ते रहते हैं । उन्हें कालकोठरी में हथकड़ियाँ-बेड़ियाँ डाल कर पटक दिया जाता है। उनका सब धन जप्त कर लिया जाता है। वे अपनी स्त्री और अपने बाल बच्चों के वियोग में जिंदगीभर झरते रहते हैं,उनके मित्र, स्वजन आदि उनका तिरस्कार करते हैं, बहुत से लोगों द्वारा वे धिक्कारे जाते हैं, लज्जित किये जाते हैं । वे वहाँ सर्दी, गर्मी की तीव्र वेदना सहते हैं,उनका मुंह पीला पड़ जाता है, चेहरे का तेज खत्म हो जाता है। उनकी सभी आशाएं धूल में मिल जाती हैं । वहाँ मनचाही वस्तु पाना तो दूर रहा, मुंह पर भी नहीं ला सकते । उनका शरीर अत्यन्त मलन और दुर्बल हो जाता है। खाँसी के मारे रात-दिन खो-खों करते रहते हैं; रातदिन एक ही अंधेरी कोठरी में रहने के कारण कोढ़ आदि बीमारियाँ उन्हें घेर लेती हैं। उन्हें खाना हजम नहीं होता । उनके केश नख और दाढ़ी-मूछों के बाल बहुत बढ़ जाते हैं। वहाँ वे अपने ही टट्टी-पेशाब से लथपथ रहते हैं। इस प्रकार जीते हुए भी वे मरे के समान जेलखाने में नारकीय जीवन बिताते हैं और वहीं रिव-रिब कर मर जाते हैं। चोर और चौर्य-कर्म की उत्पत्ति के प्रकार-संसार में चोर भी एक प्रकार के नहीं होते । यानी केवल चोरी करने वाले ही चोर नहीं कहलाते; अपितु चोरी के दुष्कर्म में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से मदद करने वालों की गणना भी चोरों में की जाती है । वे कुल मिला कर सात हैं । कहा भी है 'चौरश्चौरापको मंत्री, भेदतः काणकक्रयो । __ अन्नदः स्थानदश्चैव, चौरः सप्तविधः स्मृतः॥' अर्थात्-१-'चोरी करने वाला, २-चोरी करवाने वाला, ३-चोरी करने की सलाह देने वाला, ४-भेद बताने वाला, ५-चोरी का माल कम कीमत में खरीदने वाला, ६-चोरों को खाने के लिए अन्न देने वाला, और ७–उन्हें छुपने के लिए स्थान देने वाला; ये सातों चोर कहलाते हैं।' ....... इसी प्रकार चोरी सरीखे दुष्कर्म के होने में निमित्त कारण १८ हैं। उसके लिए, देखिए, ये प्राचीन श्लोक- . भलनं कुशलं तर्जा, राजभागोऽवलोकनम् । .. अमार्गदर्शनं शय्या पदभंगस्तथैव च ॥१॥
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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