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________________ तृतीय अध्ययन : अदत्तादान-आश्रव २८१ तिल करके उनके शरीर के छोटे-छोटे टुकड़े किये जाते हैं, (सरीरविकत्तलोहिओवलित्ता) उन्हीं के शरीर से काटे हुए और खून से लिपटे हुए (कागणिमंसाणि) छोटे-छोटे मांस के टुकड़ों को (खावियंता) उन्हें खिलाया जाता है। फिर (पावा) उन पापियों का (खरकरसहिं तालिज्जमाणदेहा) छोटे-छोटे पत्थरों से भरे हुए चमड़े के सैंकड़ों थैलों से अथवा फटे हुए सैकड़ों बांसों से उनका शरीर पीटा जाता है । देखने के लिए आतुर (वातिक नरनारिसंपरिवुड़ा) पागलों के समान नरनारियों की अनियंत्रित भीड़ से घिरे हुए (य) और (नागरजणेण) नागरिक लोगों द्वारा (पेच्छिजंता) देखे जाते हुए वे-चोर (वज्झनेपत्थिया) मृत्युदण्ड पाये हुए वध्य कैदी की पोशाक पहने (नगरमज्झण) शहर के बीचोंबीच होकर (पणेज्जति) ले जाये जाते हैं। उस समय वे (किवणकलुणा) दीनहीन-अत्यन्त दयनीय, (अत्ताणा) रक्षाहीन, (असरणा) शरणरहित, (अनाहा) अनाथ, (अबंधवा) बन्धुहीन, (बंधुविप्पहीणा) अपने भाईबन्धुओं से बिलकुल त्यक्त-त्यागे हुए (दिसोदिसं विपिक्खंता) सहारे के लिए एक दिशा से दूसरी दिशा की ओर ताकते हुए वे, (मरणभयुव्विग्गा) मृत्यु के भय से अत्यन्त व्याकुल होते हैं। (आघायणपडिदुवारसंपाविया) वध्यभूमि-शूली या फांसी दिये जाने के द्वार-स्थान पर लाये जाकर ने (अधन्ना) अभागे मनुष्य (सूलग्गविलग्गभिन्नदेहा) शूली की नोंक पर रखे जाते हैं, जिससे उनका शरीर चिर जाता है, (य) और (तत्थ) वहीं-वध्यभमि में ही (ते परिकप्पियंगमंगा कोरंति) उनके अंग-प्रत्यंग काट कर टुकड़े-टुकड़े कर दिये जाते हैं। (केई) उनमें से कई (कलुणाइ विलवमाणा) करुण विलाप करते हुए मनुष्य (रुक्खसालासु) वृक्ष की शाखाओं पर (उल्लंबिज्जति) लटका दिये जाते हैं; (अवरे) दूसरे, (चउरंगधणियबद्धा) दोनों हाथों और दोनों पैरों को कस कर बाँधे जाते हैं, (पव्वयकडगा) पर्वत की चोटी से (पमुच्चंते) नीचे गिरा दिये जाते हैं; जहाँ वे (दूरपात बहुविसमपत्थरसहा) बहुत ऊँचे से गिराये जाने के कारण बहुत ही ऊबड़खाबड़ पत्थरों को चोट सहते हैं, (य) और (अन्ने) अन्य कुछ लोग (गयचलणमलणनिम्मदिया कीरन्ति) हाथी के पैर तले कुचल डाले जाते हैं। (य) तथा (पापकारी वे पाप कर्म करने वाले चोर (मुंडपरसूहि) कुठित-भोंथरे कुल्हाड़ों से (अट्ठारसखंडिया) अठारह स्थानों से खंडित (कोरन्ति) किये जाते हैं । (केई) कई चोर ऐसे भी होते हैं, (उक्कत्तकन्नोट्ठनासा) जिनके कान, ओठ और नाक काट लिये जाते हैं, तथा (उप्पाडियनयणदसणवसणा) जिनके नेत्र, दाँत और अंडकोश उखाड़ लिये जाते हैं, एवं (जिन्भंदियच्छिया छिन्नकन्नसिरा) जिनकी जीभ खींच कर निकाल
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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