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________________ तृतीय अध्ययन : अदत्तादान-आश्रव २४३ लिए 'कांक्षा' भी चोरी में प्रेरित करने वाली होने से उसे अदत्तादान की नानी कहें तो अनुचित नहीं होगा। लालप्पणपत्थणा य-चोरी करने से जब व्यक्ति की विविध आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं होती अथवा चोरी करने का खतरा नहीं उठा सकता, तब वह लोगों के आगे जा कर उनकी खुशामद करता है, लल्लोचप्पो करता है और याचना करके किसी भी तरीके से उसकी जेब से धन निकलवा लेता है। अथवा उसकी झूठी प्रशंसा करके, उसके चरण चूम कर, दीनभाव से बार-बार प्रार्थना करके वह धन निकलवा ही लेता है । पर यह तरीका खराब है, झूठा है। अतएव इसे भी शास्त्रकार चोरी के लिए की जाने वाली माया, छल-कपट आदि का कारण होने से अदत्तादान के समकक्ष ही बताते हैं। कई हट्टे कट्टे लोग श्रम न करके अपनी रोजी रोटी के लिए सीधे ही भीख मांगने का पेशा अपना लेते हैं या लोगों से पैसे मांगने का धन्धा अपनाते हैं। ये लोग अंग-भंग करके दयनीय सूरत बना कर लोगों में करुणा पैदा करके उनसे धन निकलवा लेते हैं । इस दृष्टि से इसे भी चोरी की ही कोटि में माना जाय तो बुरा नहीं है। . आससणा य वसणं—ऐसा व्यसन, जिससे प्राण खतरे में पड़ जायं, नाक-कान काट लिये जायं,मारापीटा जाय,सरकार को पता लगने पर जेल खाने में विविध यातनाएं दी जायं,चोरी ही है। इसलिए 'आशसन व्यसन' को अदत्तादान के समकक्ष रखा गया है। इच्छा मुच्छा य-चोरी करने वाले की पहले तो परधन या सुन्दर पर वस्तु देख कर इच्छा जागती है, फिर उस वस्तु की प्राप्ति के लिए उसमें गाढ़ लालसाआसक्ति पैदा होती है । वास्तव में इन दोनों का जोड़ा अदत्तादान के सेवन का मूल प्रेरक है । इसलिए अदत्तादान की सहचरी के रूप में इन्हें माना जाय तो अनुचित नहीं है। तण्हागेहि—इसी प्रकार तृष्णा और गृद्धि ये दोनों भी चोरी की प्रेरणा देने में कारण हैं । तृष्णा के वश मनुष्य धोखेबाजी, पर-धन का गबन, रिश्वतखोरी, छीनाझपटी आदि करता है, और गृद्धि के वश रात-दिन धन-राज्य आदि को हथियाने के प्लान रचता है, मन में अनेक प्रकार के संकल्प-विकल्पों के ताने बाने गूथता है, इसलिए इन दोनों का जोड़ा भी अदत्तादान का कारण होने से उसके समकक्ष इन्हें भी रखा गया है। नियडिकम्म–धूर्तता, धोखेबाजी, मायाचारी और जालसाजी के जितने भी काम हैं, वे सब के सब प्रायः पर-धनहरण करने की इच्छा से होते हैं। इसलिए निकृति (माया) कर्म को भी अदत्तादान का जनक होने से इसे भी पर्यायवाची माना गया है।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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