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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र भावना नहीं होती; अथवा जिसे चोर का कर्म नहीं माना जाता, उसे व्यवहार में चोरी नहीं कहा जा सकता। हालांकि महाव्रती साधुओं के लिए तो प्रत्येक चीज, चाहे वह सार्वजनिक हो या व्यक्तिगत मालिकी की, आज्ञा के बिना ग्रहण करने का निषेध है। जिसका कोई स्वामी न हो उस वस्तु का भी शक्रेन्द्र महाराज की आज्ञा लेकर ग्रहण या उपयोग करने का विधान है। परन्तु गृहस्थ के लिए ऐसा कड़ा विधान नहीं है । प्रस्तुत सूत्रपाठ में इसीलिए 'चोरिक्क पद दिया है, जिसका अर्थ होता हैचोरी की भावना से किया जाने वाला कर्म । अतः इसे अदत्तादान का पर्यायवाची शब्द कहना ठीक ही है।
परहडं-पराये धन या पदार्थ का हरण कर लेने को भी 'परहृत' के रूप में अदत्तादान का साथी कहना उचित है । क्योंकि दूसरे की वस्तु (स्त्री-पुत्र-धनादि) का हरण करते समय हरण करने वाला किसी के देने से या उसके मालिक की स्वेच्छा से नहीं लेता; इसलिए 'परहृत' भी चोरी है। इसी प्रकार अमानत या धरोहर के रूप में रखे गए पराये धन या पर पदार्थ का अपने कब्जे में कर लेना, उसे अपने उपयोग में लेना या दूसरे के द्वारा लिखी गई पुस्तक पर लेखक के रूप में अपना नाम दे देना आदि भी 'परहृत' के प्रकार हैं।
अदत्त—इसका अर्थ स्पष्ट है-बिना दिये हुए का ग्रहण ।
कूरिकडं-चोरी बड़े ही साहस और क्रूरता का कार्य है। इसलिए क्रूरतापूर्वक किये जाने के कारण इसे 'क्रू रिकृत' कहा जाना भी सार्थक है। यह भी अदत्तादान ' का साथी है।
परलाभो-दूसरे की वस्तु से उसकी इजाजत या इच्छा के बिना लाभ उठाना भी 'परलाभ' के रूप में चोरी है। जैसे कोई व्यक्ति किसी की गाय या बकरी उसके मालिक की अनुमति के वगैर दुह ले, या अमानत या धरोहर रखी हुई पराई चीज से भी इसी प्रकार नाजायज.फायदा उठाए, किसी मकान को उसके मालिक से बिना पूछे ही अपने उपयोग में ले ले इत्यादि सब ‘परलाभ' के अन्तर्गत आ जाते हैं। इसलिए परलाभ को भी अदत्तादान का भाई समझना चाहिए।
असंजमो-जिसके मन, इन्द्रियों या हाथ-पैरों पर अंकुश (संयम) नहीं होता, वह खुले हुए पशु की तरह दूसरों के घर उजाड़ता है। इसलिए अदत्तादान को असंयमरूप बताना वास्तव में यथार्थ है।
परधणम्मि गेही-चोरी की मुख्य प्रेरणा ही पराये धन पर गृद्धि रखने से होती है । जब मनुष्य दूसरों के धन को हड़प लेने के लिए लालायित रहता है, तभी वह अदत्तादान में प्रवृत्ति करता है । इसलिए परधनगृद्धि को अदत्तादान की जननी कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी।