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________________ तृतीय अध्ययन : अदत्तादान -आश्रव २३५ होती, राष्ट्र में भी उसका सम्मान नहीं होता । परिवार में भी उसकी बदनामी होती है । इस प्रकार चोरी बदनामी ही कराती है । अणज्जं - चोरी अपने आप में अनार्यकर्म है । म्लेच्छ या असभ्य लोग ही इसे अपनाते हैं, सभ्य या आर्य व्यक्ति तो अपनी मेहनत से कमाई करके जीते हैं । वे चोरी को पास भी नहीं फटकने देते । छिद्द-मंतर तक्करजणबहुमयं – चोरी करने के लिए चोर मकानों के दरवाजे या घुसने का रास्ता देखता रहता है, मंत्रणा भी करता है, अथवा चोरी करने के अवसरों (मौकों) की ताक में रहता है। चोरी करने में क्या-क्या खतरा या नुकसान उठाना पड़ेगा ? इसका भी विचार करता है, राजा आदि द्वारा अपने पर क्या-क्या आफ आ सकती हैं ? इसे भी चोर सोचता है । मेलों ठेलों, उत्सवों, त्यौहारों और भीड़भड़क्कों में चोरों का दाव लगता है, ऐसे मौकों पर लोग नशे में चूर हो कर पड़े रहते हैं, बेफिक्र हो कर सो जाते हैं, या इधर-उधर चले जाते हैं, घर छोड़ कर एक जगह इकट्ठे हो जाते हैं, ऐसे मौकों पर लोगों की असावधानी का लाभ उठा कर वे चोरी करते हैं । साथ ही क्लोरोफार्म जैसी बेहोशी की दवा से बेहोश करके उनका माल ले कर चंपत हो जाते हैं । कई बार घर के मालिक आदि को जान से मार कर द्रव्य ले कर भाग जाते हैं, चोरी करने में चोर के परिणाम बहुत ही अशान्त रहते हैं; चोरों के लिए स्वपरिश्रम की अपेक्षा चोरी का रास्ता ही बहुमान्य होता है । अकलुण- रायपुरिसरक्खियं - चोरी करना करुणाहीनता का कार्य है । जिसमें सहृदयता होती है, करुणा का निवास होता है वह इस करुणाहीन कार्य को नहीं करता । अकसर चोर अपना हृदय पाषाणवत् कठोर बना कर ही दूसरे के घरों पर छापा मारते हैं । वे चोरी करते समय व्यक्ति की धनिकता-निर्धनता एवं परिस्थिति-अपरिस्थिति आदि का कतई विचार नहीं करते । जिस राज्य में चोरी होती है, वह राज्य - शासन प्रबन्ध की दृष्टि से निकृष्ट माना जाता है; उससे शासक की भी अयोग्यता साबित होती है । इसलिए शासनकर्ता लोग राज्य में कहीं चोरी न होने पावे, इसके लिए जगह-जगह राजकर्मचारियों को तैनात करते हैं; पहरेदारों को रख कर चोरी से रक्षा की व्यवस्था करते हैं । सया साहुगरहणिज्जं साधु-महात्मा चोरी जैसे महापाप को निन्द्यकर्म, घृणित व्यवसाय और गर्हित जीविका मानते हैं । वे ऐसे समाजघातक, राष्ट्रद्रोही कार्यों की सदा ही निन्दा करते' हैं । पियजण मित्तजणभेदविप्पीतिकारकं — चोरी करने वाले को उसके प्रियजन और मित्रजन शंका की दृष्टि से देखते हैं; वे उससे सशंक रहते हैं कि कभी हमारे माल पर भी यह हाथ साफ न कर जाय । इसलिए उनके साथ चोरी करने वाले
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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