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________________ २३६ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र की मैत्री टूट जाती है, उनमें आपस में फूट पड़ जाती है, अप्रीति भी पैदा हो जाती है । अतः चोरी परस्पर अविश्वास और फूट पैदा करने वाली व प्रीति-विनाशिनी है। रागदोसबहुलं-चोरी करने वाले में धन और मुफ्त के माल को हड़पने और अपना बना लेने का राग और मोह होता है, साथ ही उसके मार्ग में विघ्न डालने वालों या सामने करने वालों के प्रति द्वेष भी पैदा होता है । अतः चोरी रागद्वेषवर्द्धक है। उप्पूरसमरसंगामडमरकलिकलहवेहकरणं—संसार में आज तक जितने भी युद्ध हुए हैं, उनमें लाखों-कराड़ों मनुष्यों का संहार हुआ है। और वे सब हुए हैं या तो राज्य छीनने के लिए, या धन और सुन्दरी का अपहरण करने के लिए। चोरी का माल जहाँ आता है, वहाँ उस घर के लोगों की मनोवृत्ति हराम का माल खाने की बन जाती है, इसलिए वे मुफ्त के उस माल को हथियाने के लिए परस्पर लड़ते-भिड़ते हैं, उनमें आपस में तू-तू-मैं-मैं होती है,कई जगह राज्य या धन को हथियाने के लिए विद्रोह या विप्लव पैदा होता है, कहीं आपस में लट्ठ बजते हैं, सिरफुटौव्वल मचती है और कहीं आपसी संघर्ष के बाद जब कुछ हाथ नहीं आता या दोनों तरफ के आदमी मारे जाते हैं तो पछतावा होता है । इस तरह चोरी, विद्रोह, लड़ाई-झगड़े, वैरविरोध और पश्चात्ताप की जननी है। दुग्गइविणिवायवड्ढणं-चोरी करने वाले की आत्मा सदा रौद्रध्यान में तल्लीन रहती है; अतः उसको कर्मबन्ध भी प्रायः दुर्गति का ही होता है। बन्ध होने पर अनुभागबन्ध और स्थितिबन्ध में उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहती है। यानी दुर्गतिरूपी जेल में पड़े रहने की अवधि वह लम्बी बढ़ा लेता है। ... भवपुणब्भवकर-चोरी के कारण पापानुबन्धी पाप का बन्ध होने से प्रायः बार-बार जन्म-मरण करना पड़ता है। इसलिए चोरी. बार-बार जन्म-मरण का कारण है। चिरपरिचियमणुगयं दुरंतं—अशुभ कर्मों के उदय से चोरी करने वाला बारबार कुगति में जाता है और कुगति में इसी पापकर्म को वह पुनः पुनः करता है । इस लिए वह चिरकाल से चोरी से परिचित और अभ्यस्त हो जाता है। फिर तो चोरी का पाप आत्मा के साथ निरन्तर लगा रहता है, इससे बड़ी मुश्किल से पिंड छुड़ाना होता है। तइयं अधम्मदारं-इस प्रकार चोरी अधर्म का तीसरा द्वार है। अधर्मद्वार में प्रवेश करने के बाद झट पट निकलना नहीं हो सकता; क्योंकि उसका सिरा नहीं मिलता। एक छोर से दूसरे छोर तक जिधर देखो उधर अधर्म का ही वातावरण मिलता है।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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