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________________ २३४ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र से त्याग करते हैं। गृहस्थ श्रावक के लिए स्थूलरूप से अदत्तादान के त्याग का विधान है। . हर-दह-मरण-भय-कलुस-तासण-परसंतिगऽभिज्जलोभमूलं-चोरी का मूल क्या है ? इसका विश्लेषण करते हुए शास्त्रकार सर्वप्रथम इन सब पदों को प्रस्तुत करते हैं । हर और दह ये दोनों शब्द हरण और दहन के पर्यायवाची हैं। चोर जब चोरी करने जाते हैं तो घर का स्वामी या अन्य लोग जब उन्हें धन नहीं बताते हैं तो वे जबरन उनका धन छीन लेते हैं ; या उनकी प्रिय वस्तुओं का हरण कर लेते हैं। कई बार वे गुस्से में आ कर घर में आग भी लगा देते हैं, अथवा हृदय में संताप पैदा करते हैं ; दूसरों को जान से भी मार देते हैं। कई बार खुद की जान को भी खतरा रहता है, चोर स्वयं भी भयभीत रहते हैं, चोरी से दूसरे भी बहुत भयभीत रहते हैं। चोरी अत्यन्त कलुषित कार्य है । चोरी करने वाले को तथा जिसके यहाँ चोरी होती है,उसे अत्यन्त त्रास पैदा होता है । चोर विरोधियों द्वारा जान से मारे जाते हैं,पकड़े जाने पर जेलखाने में नरक की-सी यातना भोगते हैं, उनके हाथपैर काट लिये जाते हैं, वे परलोक में भी नरक-तिर्यञ्चगति में भयंकर दुःख पाते हैं । इस तरह जिस चोरी के निमित्त से ये अनर्थ और संक्लेश पैदा होते हैं, उसका मूल कारण पराये धन को अपने कब्जे में करने की लिप्सा है, जिसे पूरी करता है मनुष्य स्तेनानुबन्धी रौद्रध्यान से प्रेरित होकर । रौद्रध्यान के ४ भेद हैं-हिंसानुबन्धी, स्तेनानुबन्धी, मृषानुबन्धी और संरक्षणानुबन्धी। चोरी करने में ही चित्त लगाए रखना, रात-दिन चोरी करने के स्थानों, तरकीबों और योजनाओं को मन में घुलाते रहना, चोरी करने के तरीकों पर ही मन को एकाग्र कर लेना और इसी उधेड़बुन में लगे रहना स्तेनानुबन्धी रौद्रध्यान है। इस प्रकार इस वाक्य में चोरी का विश्लेषणमूलक स्वरूप बताया है। कालविसमसंसियं-चोरी करने वाला प्रायः रात को, जब लोग सो जाते हैं, तभी चोरी करने निकलता है। उसके पश्चात् बात ठंडी पड़ जाय, इसलिए एक-दो महीने गुफा, खोह, बीहड़, घने जंगल आदि विषम स्थानों में जा कर छिपता है, माल भी वहीं कहीं गाड़ देता है । इस प्रकार चोरी विषमकाल और विषमस्थान के आश्रय से की जाती है। अहोऽछिन्नतण्हपत्थाणपत्थोइमइयं-चोरी सतत तृष्णातुर व्यक्ति ही करता है, जिसमें ऐसी घोर लालसा होती है, उसकी बुद्धि अपने लिए नरक में जाने का रास्ता तैयार कर लेती है। अकित्तिकर चोरी करने वाले की समाज में कोई कीर्ति या प्रतिष्ठा नहीं
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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