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________________ तृतीय अध्ययन : अदत्तादान-आश्रव २३३ से जीवों को त्रास पैदा करने वाला है, पराये धन में रौद्रध्यानरूप मूर्छा ही इसका मूल कारण है । यह आधीरात आदि काल और पर्वत आदि विषमस्थानों पर आश्रित रहता है। जिनके चित्त में निरन्तर लालसा रहती है, उन्हें अधोगति में डालने वाली बुद्धि प्रदान करने वाला है, अपयश का कारण है, अनार्यपुरुषों द्वारा आचरित है, प्रवेशद्वार (छिद्र), अवसर (मौका), अपाय (नुकसान) तथा राजा आदि द्वारा दी गई विपत्ति का हरदम ढूढने वाला है। उत्सवों में शराब आदि के नशे में चूर, असावधान या सोये हुए मनुष्यों की गफलत से लाभ उठाने वाला है, चित्त में घबराहट पैदा करने और मारने में उद्यत चोर-डाकुओं द्वारा बहुत मान्य (अपनाया जाता) है। चौकीदार, पहरेदार, कोतवाल आदि राजकर्मचारियों द्वारा इसे रोका जाता है, साधुपुरुष सदा इसकी निन्दा करते हैं । यह प्रियजनों और मित्रजनों में परस्पर फूट डालने और अप्रीति पैदा करने वाला है। राग और द्वष से परिपूर्ण है, बहुतायत से मनुष्यों की मृत्यु का कारण है। दुर्गतिपतन को बढ़ावा देने वाला है । संसार में बारबार जन्म कराने वाला है, अनादिकाल से परिचित हैं । आत्मा का निरन्तर पिछलग्गू है और परिणाम में दुःखदायक है। यह तीसरा अधर्मद्वार है। व्याख्या . मृषावाद का निरूपण करने के पश्चात् शास्त्रकार अदत्तादान का निरूपण करने की इच्छा से स्वरूप, नाम आदि पूर्वोक्त पांच द्वारों में से सर्वप्रथम अदत्तादान के स्वरूप का वर्णन करते हैं—'जंबू ! तइयं च अदिण्णादाणं'—सुधर्मास्वामी अपने प्रिय शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं---'जम्बू ! यह तीसरा महापाप अदत्तादान है ।' __- अदत्तादान का लक्षण- जिस वस्तु पर अपना स्वामित्व नहीं है, उसे बिना दिये या बिना अनुमति के ग्रहण कर लेना या दूसरे के अधिकार की वस्तु को अपने कब्जे में कर लेना अदत्तादान कहलाता है। इसे चोरी, चौर्य, स्तेय आदि भी कहते हैं । ऐसी अदत्त वस्तु धन, या कोई भी वस्तु वस्त्र,बर्तन आदि साधन या मकान आदि भी हो सकती है। शास्त्र में ऐसा अदत्त चार प्रकार का बताया है-स्वामी का अदत्त, जीव का अदत्त, गुरु का अदत्त, तीर्थंकर का अदत्त । इन चारों के भी द्रव्य से (ग्रहण करने योग्य कोई भी वस्तु), क्षेत्र से (सर्व लोक में), काल से (दिन और रात में), भाव से (रागद्वेष से) अदत्त होते हैं। इस प्रकार कुल मिला कर ४+४= १६ भेद अदत्त के हुए। इन सभी प्रकार के अदत्तों का महाव्रती साधु-साध्वी तीन करण एवं तीन योग
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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