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आश्रव और संवर की चर्चा अन्य आगमों में भी है। किन्तु जितना क्रमबद्ध व्यवस्थित वर्णन प्रस्तुत प्रश्न व्याकरण सूत्र में है, उतना अन्यत्र नहीं है । यही कारण है कि प्रश्न व्याकरण पर अनेक टीकाएँ, निबन्ध आदि लिखे गए हैं । वर्तमान मे छोटेबड़े अनेक संस्करण प्रकाशित हुए हैं, प्रकाशित हो रहे हैं। सब की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं, मैं किसी को छोटा या बड़ा, हीन या महान् नहीं बताना चाहता। परन्तु प्रस्तुत संस्करण के सम्बन्ध में अवश्य कुछ प्रकाश डालना चाहता हूँ।
। प्रस्तुत संस्करण प्रस्तुत सस्करण प्रश्न व्याकरण का एक विराटकाय संस्करण है। सर्वप्रथम शुद्ध मूल पाठ है, तदनन्तर संस्कृतच्छाया, पदान्वयार्थ और मूलार्थ है, जिनसे मूल का शब्दशः अर्थबोध हो जाता है। साधारण पाठक भी पदान्वयार्थ और मूलार्थ पर से मूल पाठ को अच्छी तरह लगा सकता है, मूल का अभिप्राय ग्रहण कर सकता है। अन्त में विस्तृत व्याख्या है। राष्ट्र भाषा हिन्दी में इतनी विशिष्ट एवं विशाल व्याख्या प्रश्न व्याकरण सूत्र पर अभी तक अन्य कोई नहीं लिखी गई। अनेक हेतु, तर्क, उद्धरण तथा दृष्टान्त आदि से प्रश्न व्याकरण की मूल भावना को स्पष्ट करने का, यह एक अभूतपूर्व महान् प्रयत्न है । व्याख्या में यत्रतत्र लेखक की मौलिक प्रतिभा के परिदर्शन होते हैं । प्रस्तुत संस्करण की अपनी एक पृथक् विशिष्टता है, तो वह इस की महती व्याख्या ही है, जिसमें व्याख्याकार का गहन एवं विस्तृत अध्ययन, दार्शनिक चिन्तन एवं मर्मोद्घाटक प्रगाढ पाण्डित्य प्रतिबिम्बित हुआ है।
प्रस्तुत संस्करण के व्याख्याकार और सम्पादक प्रस्तुत संस्करण के मूल संपादक एवं व्याख्याकार, मेरे अभिन्न स्नेही सुहृद् पं० श्री हेमचन्द्र जी महाराज हैं । संस्कृत, प्राकृत भाषाओं का उनका अध्ययन गंभीर एवं व्यापक है । व्याकरण की मर्मज्ञता तो उनकी सब ओर सुप्रसिद्ध रही है। जैन धर्मदिवाकर, महामहिम स्व० आचार्य देव श्री आत्माराम जी महाराज के श्रीचरणों में जब से दीक्षा ली, तभी से अध्ययन में संलग्न हुए, और निरन्तर अपने अध्ययन को सूक्ष्म, गंभीर एवं व्यापक बनाते गए। स्व० आचार्य देव स्वयं भी एक महान् आगमाभ्यासी एवं चिन्तक थे । अपने युग में वे आगमों के एक सर्वमान्य, लब्धप्रतिष्ठ अध्येता एवं प्रवक्ता माने जाते थे। आगमसागर का उन्होंने तलस्पर्शी अवगाहन किया था । अनुयोग द्वार, आचारांग, स्थानांग, उत्तराध्ययन आदि अनेक गंभीर एवं गूढ कहे जाने वाले आगमों पर उन्होंने हिन्दी टीकाएँ लिखी हैं, जो विद्वज्जगत् में समादरणीय हुई हैं । आचार्य जी की विवेचनशैली स्पष्ट, अर्थबोधक एवं हृदयग्राहिणी है । इसी हेतु के सुप्रकाश में उन्हें जैन संघ ने 'जैनागमरत्नाकर' के महनीय पद से समलंकृत किया था। गुरुदेव की चिज्ज्योति प्रिय शिष्य पर