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नन्त काल तक मन के रोग इसी प्रकार उत्पीडित करते रहेंगे । एक क्षण के लिए भी आत्मा को शान्तिलाभ नहीं होने देंगे।
। प्रस्तुत प्रश्न व्याकरण सूत्र में मन के रोगों की सही चिकित्सा का विधान है। प्रथम आश्रव खण्ड में रोगों का वर्णन है । रोग हैं, अन्तर्मन के विकार हिंसा, असत्य, स्तेय-चौर्य, ब्रह्मचर्य-कामविकार, और परिग्रह अर्थात् मूर्छा, आसक्ति, लोभ, तृष्णा, गृद्धि।
प्रथम खण्ड में रोगों का स्वरूप और उन के द्वारा होने वाले दुःखों एवं पीडाओं का उल्लेख है । द्वितीय संवर खण्ड में अहिंसा, सत्य, अस्तेय-अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह के स्वरूप का एवं उनके सुखद प्रतिफलों का वर्णन है। आगम की भाषा में हिंसादि पाँच प्रकारों को आश्रव कहा जाता है। आश्रव, अर्थात् नवीन कर्मप्रवाह का आत्मा के क्षेत्र में प्रविष्ट होने का द्वार३९। और अहिंसा, सत्य आदि पाँच को संवर कहा जाता है । संवर, अर्थात् आत्म क्षेत्र में प्रविष्ट होने वाले कर्मप्रवाह का निरोध ।४० आश्रव संसार का हेतु है और संवर मोक्ष का, अतः आश्रव तथा संवर के वर्णन में ही समग्र जिन प्रवचन का सारांश, निष्यन्द अर्थात् निचोड़ आ जाता है।४१ जिस साधक ने आश्रव और संवर के स्वरूप को समझ लिया, उसने एक प्रकार से साधना का समग्र तत्त्व ही अधिगत कर लिया।
३६-पुण्यपापागमद्वारलक्षण आस्रवः ।१६। पुण्यपापलक्षणस्य कर्मण आगमन
द्वारमात्रव इत्युच्यते । आस्रव इवात्रवः । क उपमार्थः ? यथा महोदधेः सलिलमापगामुखैरहरहरापूर्यते तथा मिथ्यादर्शनाविद्वारानुप्रविष्टः फर्मभिरनिशमात्मा समापूर्यत इति मिथ्यादर्शनादिद्वारमात्रवः ।
--तत्त्वार्थराजवार्तिक १।४।१६ ४०-आस्रवनिरोधलक्षणः संवरः ।१८। पूर्वोक्तानामानवद्वाराणां शुभपरिणाम
वशानिरोधः संवरः । संवर इव संवरः । क उपमार्थः ? यथा सुगुप्तसुसंवृतद्वारकपाटं पुरं सुरक्षितं दुरासदमरातिभिर्भवति, तथा सुगुप्तिसमितिधर्मानप्रेक्षा-परीषहजय-चारित्रात्मनः सुसंवृतेन्द्रियकषाययोगस्य अभिनवकर्मागमद्वारसंवरणात् संवरः
-तत्त्वार्थराजवार्तिक १।४।१८ ४१-(क) अण्हयसंवरविणिच्छयं पवयणस्स निस्संद।
-प्रश्नव्याकरण, पीठिका, १ (ख) आबेवो भवहेतुः स्यात्, संवरो मोक्ष कारणम् । इतीयमाईती दृष्टिरन्यदस्याः प्रपञ्चनम् ।।
-आचार्य हेमचन्द्र, वीतरागस्तोत्र १९६६