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________________ २१० श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र का घातक है; क्योंकि कुम्हार आदि निमित्त कारणों ने मिल कर मिट्टी (उपादान कारण) से घड़ा पैदा किया है । इस पर सांख्यमत कहता है 'मिट्टी में घड़ा मौजूद न होता तो कुम्हार की क्या ताकत थी कि घड़ा बना देता ? जैसे भरसक जोर लगाने पर भी कुम्हार पानी से कभी घड़ा नहीं बना सकता । अतः मानना पड़ेगा कि कारण में कार्य विद्यमान रहता है, लेकिन उसे व्यक्त करने के लिए किसी व्यञ्जक की आवश्यकता होती है ।' यह कथन भी प्रत्यक्ष-प्रमाणविरुद्ध है । यदि मिट्टी के ढेले में घड़ा होता तो क्षु आदि इन्द्रियों से घड़े का आकार आदि प्रत्यक्ष प्रतीत होता । लेकिन वहाँ तो घड़े के विपरीत आकार वाला ढेला ही दृष्टिगोचर होता है । इसलिए मिट्टी के ढेले में घड़े का अस्तित्व स्वीकार करना प्रत्यक्ष विरुद्ध है । यदि यह कहें कि 'जैसे अँधेरे में पड़ा हुआ घड़ा मौजूद होने पर भी आवरण आ जाने के कारण जब तक उसका व्यञ्जकदीपक नहीं आ जाता, तब तक वह दिखाई नहीं देता; वैसे ही ढेले में विद्यमान घड़ा भी आवरण आ जाने के कारण, उसका व्यञ्जक न आ जाय तब तक दिखाई नहीं देता ।' सांख्यदर्शन का यह कथन भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि इस मन्तव्य से तो व्यञ्जक और कारक में कोई अन्तर नहीं मालूम देता । वस्तुतः कारक और व्यञ्जक में बड़ा अन्तर है । जहाँ व्यंग्य ( प्रकट होने योग्य) पदार्थ प्रत्यक्षादि प्रमाण से पूर्व सिद्ध हो, पर किसी दूसरे पदार्थ से आवृत हो गया हो तो उसके विरोधी व्यञ्जक पदार्थ के उपस्थित होने से वह व्यक्त होता है । जैसे अँधेरे में घड़ा स्पर्शन आदि इन्द्रियों द्वारा सिद्ध होता है, तो वहाँ दीपक आदि व्यञ्जक के द्वारा उसकी अभिव्यक्ति हो जाती है । परन्तु मिट्टी के ढेले में घड़े की उपलब्धि किसी भी प्रमाण से पहले नहीं होती । कुम्हार आदि कारण से तो उसकी उत्पत्ति ही होती है, अभिव्यक्ति नहीं । अंधेरे में स्थित घड़े के बारे में तो दीपक व्यंजक है, कारक नहीं, जबकि मिट्टी के ढेले में घड़े के होने के बारे में तो कुम्हार कारक है; व्यंजक नहीं । पूर्वोक्त कथन सत्कार्यवाद की सिद्धि न होने से यह मानना ठीक नहीं है कि प्रकृति में महत्तत्व (बुद्धि) आदि तत्त्व विद्यमान रहते हैं । तथा यह कथन भी गलत है कि सत्त्व, रज, तम की विषमता होने से महत्तत्त्व आदि प्रादुर्भूत होते हैं । क्योंकि पहले तो सत्त्व, रज, तम की साम्यावस्थारूप प्रकृति ही प्रत्यक्षादि प्रमाण से सिद्ध नहीं होती ; अपितु उसके कार्यरूप से माने गये महदादि ही सिद्ध होते हैं । इसलिए 'त्रिगुणमविवेकी' इत्यादि प्रकृति के लक्षण के सम्बन्ध में कथन वन्ध्यापुत्र के सौभाग्य आदि वर्णन के समान हास्यास्पद सिद्ध होता है । इसी प्रकार पुरुष (आत्मा) को अकर्ता, कर्मफलभोक्ता व कूटस्थनित्य आदि मानना भी प्रमाणविरुद्ध है । यदि आत्मा पुण्य-पाप का कर्ता नहीं, प्रकृति ही पुण्यपापादि की
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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