SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 256
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय अध्ययन : मृषावाद-आश्रव की है, तब तो आत्मा (पुरुष) का अस्तित्व मानना भी व्यर्थ है । क्योंकि जो पुण्य-पाप का कर्ता है, वही उसके फल का भोक्ता होता है । यदि यह कहें कि आत्मा (पुरुष): तटस्थरूप से द्रष्टा मात्र है। प्रकृति का कार्य, जो बुद्धि है, उसमें प्रतिबिम्बित हुए सुख-दुःखादि का भोगने वाला है। यह कथन भी न्यायविरुद्ध है। जब आत्मा सर्वथा अकर्ता है, तो भोगक्रिया का कर्ता (भोक्ता) भी नहीं हो सकता। शुभाशुभकर्म करने वाली तो प्रकृति हो और उसका फल भोगने वाला पुरुष (आत्मा) हो, यह बात तो न्यायविरुद्ध है। काम कोई करे और फल कोई भोगे, यह कहाँ का न्याय है ? इससे तो कृत का नाश और अकृत की प्राप्तिरूप दोष आएगा। इसलिए आत्मा को अकर्ता व भोक्ता मानना मसत्य है। ___ आत्मा को सर्वथा कूटस्थंनित्य मानने से उसकी नर, नारक आदि पर्यायें भी सिद्ध नहीं हो सकती ; जबकि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से आत्मा की नर-नारक, तिर्यञ्च आदि पर्यायें प्रतीत होती हैं । और प्रकृति तो स्वयं जड़ है, उसकी ये चेतनात्मक पर्यायें हो ही कैसे सकती हैं ? इसलिए आत्मा को कूटस्थनित्य मानना भी असत्य है। आत्मा द्रव्यरूप से नित्य है, वह कभी अनात्मा (जड़) हो नहीं सकता, सदा चैतन्यादिगुणविशिष्ट बना रहता है । इसलिए वह नित्य है । लेकिन कभी सुखी कभी दुःखी होता है, कभी मनुष्यपर्याय व कभी देवपर्याय को प्राप्त करता है, इसलिए अनित्य भी हैं। अतः आत्मा को कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य मानना ही सत्य है। आत्मा को सर्वथा अमूर्त मानना भी युक्तिविरुद्ध है। यदि आत्मा सर्वथा अमूर्त है तो उसका मूर्त प्रकृति के साथ सम्बन्ध बन ही नहीं सकता। जैसे अमूर्त आकाश के साथ किसी मूर्त अग्नि, तलवार आदि का सम्बन्ध नहीं है । अग्नि, तलवार आदि मूर्त का असर भी अमूर्त आकाश पर नहीं दिखाई देता । क्योंकि आकाश का अग्नि से दाह और तलवार से छेदन नहीं होता। इसी प्रकार आत्मा को सर्वथा अमूर्त मानने पर उस पर मूर्त प्रकृति का असर कुछ भी न हो सकेगा। परन्तु सांख्यदर्शन के मन्तव्यानुसार प्रकृति के सम्बन्ध से आत्मा नर-नारक आदि पर्यायों तथा सुख-दुःख आदि परिणामों का अनुभव करता है । इसलिए सांख्यदर्शन का आत्मा को सर्वथा अमूर्त मानना भी असत्य है। जपाकुसुम का दृष्टान्त दे कर आत्मा को जो सर्वथा निर्विकार, निर्लेप और शुद्ध सिद्ध करने की चेष्टा की गई है, वह भी यथार्थ नहीं है। जपाकुसुम का सम्बन्ध स्फटिकमणि के साथ बना रहता है, तभी तक वह स्फटिक लाल प्रतीत होता है। यद्यपि वह लालिमा उस स्फटिक की स्वाभाविक नहीं है ; अपितु जपाकुसुम के सम्पर्क से आई हुई विकारजन्य हैं । तथापि उस स्फटिक में जपाकुसुमरूप से परिणमन करने की
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy