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द्वितीय अध्ययन : मृषावाद - आश्रव
'प्रकृतेर्महांस्ततोऽहंकारस्तस्माद् गुणश्च षोड़शकः । तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्चभूतानि ॥' अर्थात् — प्रकृति से महत्तत्त्व (बुद्धि) प्रगट होता है, महत्तत्व से अहंकार, और अहंकार से १६ गुण ( ५ ज्ञानेन्द्रियां, ५ कर्मेन्द्रियां ५ तन्मात्रा और १ मन ) प्रगट होते हैं । ५ तन्मात्राओं (स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द) से पृथ्वी - जल, वायु, अग्नि और आकाश ये ५ महाभूत प्रादुर्भूत होते हैं ।
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इस प्रकार सृष्टि की रचना में २४ तत्त्व और २५ वां पुरुष ( आत्मा ) ये सब निमित्त होते हैं ।
सांख्यदर्शन के मत की असत्यता - प्रकृति और पुरुष का यह पूर्वोक्त सांख्यदर्शन का मत प्रतीति और प्रमाण से विरुद्ध होने से असंगत और असत्य सिद्ध हो जाता है । सांख्यमत में बताया गया है कि जब तक सत्त्वादि त्रिगुणों की साम्यावस्था रहती है, तब तक प्रकृति अपनी शुद्ध अवस्था में रहती है, जब इनमें विषमता - हीनाधिकता आती है, तब सृष्टि की रचना तथाकथित क्रम से होती है । यहाँ प्रश्न उठता है कि जब प्रकृति अचेतन है और पुरुष चेतन होने के बावजूद भी कुछ कार्य नहीं करता, सिर्फ अपने स्वरूप का ही अनुभव करता है, तो अचेतन प्रकृति सब काम कैसे कर सकती है ? क्योंकि यह देखा जाता है कि चेतन का निमित्त पा कर ही अचेतन पदार्थ कुछ कार्य कर सकते हैं, किन्तु अकेली जड़ प्रकृति पृथ्वी आदि मूर्त पदार्थों और आकाश आदि अमूर्तं पदार्थों की जनक कैसे हो सकती है ? न्यायशास्त्र का यह नियम है कि जैसा उपादान कारण होता है, वैसा ही कार्य होता है । मूर्त कारण हो तो उससे मूर्त कार्य और अमूर्त कारण हो तो अमूर्त कार्य होता है । मूर्त और अमूर्त धर्म परस्पर विरोधी हैं। एक ही वस्तु में ये दोनों धर्म नहीं पाये जा सकते । ज्ञान चेतन का धर्म है, वह अचेतन प्रकृति से कैसे उत्पन्न हो सकता है ?
सांख्यदर्शन के अनुसार कारण में हमेशा कार्य विद्यमान रहता है; यह बात भी असंगत है । यदि कारण में कार्य सदा विद्यमान रहता हो तो उसकी उपलब्धि सदा होनी चाहिए, लेकिन ऐसा होता नहीं । दूध की अवस्था में दही नहीं दिखाई देता और न मिट्टी के ढेले में घड़ा ही उपलब्ध होता है । यदि कारण में कार्य सदा विद्यमान होता तो दूध में दही की, मिट्टी के ढेले में घड़े की उपलब्धि भी होती ।
यदि कहें कि कि कारण पर आवरण आया हुआ है, उसे दूर करने के लिए किसी योग्य अनुकूल कारण की आवश्यकता होती है। जब वह मिल जाता है, तब वह (कार्य) व्यक्त-प्रगट हो जाता है । जैसे मिट्टी में से घड़े को व्यक्त करने के लिए कुम्हार, चक्र वगैरह अनुकूल कारण अपेक्षित हैं । परन्तु यह मन्तव्य तो सत्कार्यवाद
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