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________________ द्वितीय अध्ययन : मृषावाद-आश्रव १६१ यहाँ आता है । न तथाकथित के फलस्वरूप होते हैं, वे हो कर ही रहते हैं । नियति अपने आप चलती है, उस पर किसी का प्रतिबन्ध नहीं । जब नियति के प्रभाव से संसार में तथाकथित शुभ या अशुभ कार्य होते हैं, तब फलाफल की बात ही क्यों ? किसी अच्छी-बुरी क्रिया का स्वयमेव कोई अस्तित्व ही नहीं है, तो उसके फलाफल देने की तो बात ही नहीं उठती । और न उनके फल को भोगने के लिए कोई परलोक में जाता है और न पाप-पुण्य कर्मों का फल किसी को मिलता है । न कोई तथाकथित पुण्य तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव या वासुदेव बनते हैं और न कोई ऋषि- - मुनि ही होते हैं । यह सब आस्तिकों की अपनी कल्पनामात्र है । जैसा होनहार होता है, वैसा ही मनुष्य हो जाता है। माता-पिता का विशेष सम्बन्ध भी झूठा और कल्पित है । यह सृष्टि स्वभावतः बढ़ती जाती है । एक प्राणी से अपने समान दूसरा प्राणी उत्पन्न होता है । उन दोनों का सम्बन्ध माता-पिता एवं सन्तान का न हो कर सिर्फ जन्यजनकसम्बन्ध हैं । और यह सम्बन्ध चेतन और अचेतन दोनों में हम समानरूप से देखते हैं । जैसे सचेतन मनुष्यादि के सम्बन्ध से सचेतन जुए, खटमल आदि पैदा हो जाते हैं, वैसे ही उनसे अचेतन मलमूत्र आदि भी उत्पन्न होते हैं और अचेतन काठ से घुन, कीड़े आदि सचेतन पदार्थ जन्म लेते हैं । उसी प्रकार अचेतन बुरादा (चूर्ण) आदि भी उससे पैदा होता है । इसलिए पदार्थो का केवल जन्यजनकभाव सम्बन्ध है; मातृत्व - पितृत्व और पुत्रपुत्रीत्व आदि कोई विशिष्ट सम्बन्ध नहीं हैं । इसलिए माता-पिता कहे जाने वाले व्यक्तियों का अपमान, भोग या विनाश आदि करने में कोई दोष नहीं है । नास्तिकवादी आगे कहते हैं कि ‘लोग धर्मप्राप्ति के लिए त्याग, प्रत्याख्यान या अहिंसादि का पालन करते हैं; परन्तु जब धर्म ही सिद्ध नहीं होता तो त्याग आदि का व्यर्थ कष्ट सहना आकाश में फूल लगाकर उसकी सुगन्ध लेने की आशा के समान निष्फल है । जब दान, परोपकार आदि पुण्य या त्याग, प्रत्याख्यान, अहिंसा - सत्यादि धर्म अथवा इनसे विपरीत चोरी, जुआ, परस्त्रीगमन आदि पाप और मिथ्याभाषण आदि अधर्म ही सिद्ध नहीं हैं तो उनके फल के चक्कर में भी पड़ना व्यर्थ है । जब पुण्य-पाप, धर्म-अधर्म आदि भी हैं नहीं, तो इनका फल कहाँ से मिल जाएगा ?' इसी तरह वे कहते हैं कि काल नाम की कोई चीज नहीं है । अगर काल नामक कोई द्रव्य हो तो वह उपलब्ध होता । परन्तु जब उनके सामने यह तर्क प्रस्तुत किया ता है कि अगर काल न होता तो वसन्तऋतु आने पर पतझड़ हो कर जो नये पत्ते और फूल आदि निकल आते हैं, वर्षाऋतु आते ही जो वर्षा शुरू हो जाती है, ग्रीष्मऋतु में जो भूमि, हवा आदि गर्म होकर सारा वातावरण उष्णता से व्याप्त होता है, शीत ऋतु आते ही सर्वत्र शीतलहरी जो चल पड़ती है, प्राणी ठंड के मारे ठिठुरने लगते हैं, यह सब क्या है ? क्या काल के बिना यह सब हो सकता है ? इसके उत्तर
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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