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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
चीज किसी के द्वारा रचित नहीं है, पदार्थों के जो भी स्वरूप या प्रकार हैं, वे सब नियति के द्वारा किये गए हैं ।
जैसा कि उन्होंने पहले कहा था कि तप, जप, संयम आदि या पुरुषार्थ, प्रत्याख्यान आदि कुछ भी नहीं हैं । जब कोई उनसे पूछता है कि यह जो पुरुषार्थ, त्याग, प्रत्याख्यान आदि किये जाते हैं, ये क्या हैं ? तो वे कहते हैं—इस संसार में जो कुछ होता है, वह अपने आप है, अपनी इच्छा से होता चला जाता है । अथवा यह सब पदार्थों के अपने-अपने स्वभाव के अनुसार होता चला जाता है । कोई इनको करता कराता नहीं है | अथवा अपने-अपने समय के अनुसार सब होता चला जाता है ।
कहा भी है
कण्टकस्य प्रतीक्ष्णत्वं मयूरस्य विचित्रता । वर्णाश्च ताम्रचूडानां स्वभावेन भवन्ति हि ॥
अर्थात्—कांटे में तीखापन, मोर का रंगबिरंगा चित्रित शरीर, मुर्गों के शरीर पर अनेक रंग, ये सब स्वभाव से होते हैं ।
इसी प्रकार जो पुरुषार्थ, त्याग या पुण्य-पाप के फल हैं, वे भी स्वभाव से ही होते चले जाते हैं । अथवा दैव के प्रभाव से भी कभी-कभी ये सब दिखाई देते हैं । यदि कोई उनसे पूछे कि सुखी - दुःखी, धनी - निर्धन आदि जो विचित्रताएँ या विविधताएँ संसार के जीवों में दिखाई देती हैं, ये किस कारण से हैं ? दैव या स्वभाव से अगर ये होते हों तो सभी मनुष्यों के एक सरीखे होने चाहिए, जैसे मोर आदि सब में एक सरीखे डिजाइन, आकृति व रंग होते हैं, फिर मनुष्यों के जीवन में यह अन्तर क्यों ? इसके उत्तर के लिए वे नियति का पल्ला पकड़ लेते हैं कि जो सुख-दुःख या धनी - निर्धन आदि विविधताएँ दिखाई देती हैं, वे सब नियतिकृत हैं; होनहार से या भवितव्यता से ही होती हैं । कहा भी है
" प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः, सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा । भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नाभाव्यं भवति, न भाविनोऽस्ति नाशः ॥ "
मनुष्यों को नियति (भवितव्यता - होनहार ) के बल पर जो शुभ या अशुभ पदार्थ मिलना होता है, वह अवश्य ही मिल कर रहता है । प्राणियों के जीतोड़ प्रयत्न करने पर भी जो बात नहीं होनी होती है, वह कदापि नहीं होती और जो होने वाली होती है, उसका कभी नाश नहीं होता । यानी उसे कोई रोक नहीं सकता; वह हो कर ही रहती है।
इस दृष्टि से पुरुषार्थ, त्याग, प्रत्याख्यान आदि या चोरी, जारी आदि जो होने