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द्वितीय अध्ययन : मृषावाद-आश्रव
१८६ भोगना बाकी रहा। शरीर के खत्म होते ही पुण्य-पापकर्म का बन्ध और उनका शुभाशुभ फल भी यहीं समाप्त हो गए ! कितनी विचित्र मान्यता है !
इस मत को असत्यता—अगर शरीर यहीं नष्ट हो जाता हो और उसके साथ ही पुण्यपाप कर्म और उनके फल नष्ट हो जाते हों, तब तो किसी को भी ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना करने की जरूरत ही नहीं और न अहिंसा-सत्यादि का पालन करने की ही जरूरत है ! फिर तो बेखटके मनमानी प्रवृत्ति ही मनुष्य करे ? परन्तु यह मत अनेक प्रमाणों से खण्डित हो जाता है। हम पहले शरीर से भिन्न अनुगामी नित्य आत्मा की एवं पुर्वजन्म, तथा पुण्यपाप के फल की बातें अनेक प्रमाणों से सिद्ध कर आए हैं ; अतः उन्हीं पर से इस मत की असत्यता समझ लेनी चाहिए।
___ तम्हा दाणवय नत्थि फलं .. वामलोगवादी-इन्हीं पूर्वोक्त दार्शनिकों का यह घोर नास्तिकवादी मत है कि 'दान, व्रत, तप, पौषध, संयम, ब्रह्मचर्य आदि अर्थात् कल्याण के हेतु त्रिकरण-त्रियोग से ज्ञान-दर्शनचारित्रादि का आचरण करने पर भी उनका कोई सुफल कर्मक्षयरूप या सुगतिगमनादिरूप नहीं है। तथा प्राणातिपात, मृषावाद, चोरी, परस्त्रीगमन, परिग्रहसेवन तथा अन्य कोई भी पापकर्म अशुभ फल के हेतु नहीं हैं, ये सब कपोलकल्पित हैं । नारकों, तिर्यञ्चों व मनुष्यों की योनियाँ या देवलोक नहीं हैं, सिद्धि (मोक्ष) गमन भी नहीं है । माता-पिता भी नहीं होते । न पुरुषार्थ है, न प्रत्याख्यान है, न काल है, न मौत है ; न अरिहंतों, चक्रवतियों, बलदेवों या वासुदेवों का कोई नामोनिशान है, न ही किन्हीं ऋषि-मुनियों का अस्तित्व है; धर्माधर्म का फल भी थोड़ा या बहुत कुछ भी नहीं है। इसलिए ऐसा जान कर इन्द्रियों के अनुकूल तमाम विषयों में खूब डट कर प्रवृत्ति करो। कोई भी शुभ क्रिया या निन्दनीय अक्रिया नहीं है। लोक का विपरीतस्वरूप बताने वाले नास्तिकवादी इस प्रकार कहते हैं।
नास्तिकवादी अपने मत का समर्थन इस आधार पर करते हैं कि दान, ब्रह्मचर्य आदि सब कल्याणकारी धर्म के अंग तो आस्तिकों ने माने हैं, हम तो उन्हें नहीं मानते । इनके मानने में कोई प्रमाण भी नहीं है। जो आस्तिकों द्वारा प्रमाण दिये जाते हैं, उन सब में परस्पर विरोध है। इसलिए प्रत्यक्ष दर्शन के अभाव में सब अप्रमाण हैं।
अपने मत की पुष्टि करते हुए वे आगे कहते हैं—जंपि इह किंचि दीसइ सुकयं वा दुकयं वा एवं जदिच्छाए वा सहावेण वावि दइवतप्पभावओ वावि भवति । नत्थेथ किंचि कयकं तत्तं लक्खणविहाणं नियतीए कारियं ।" अर्थात् इस जीव लोक में जो भी सुकृत या दुष्कृत दिखाई देता है, वह अपने-आप ही (यदृच्छा से) होता है, या स्वभाव से होता है, अथवा कभी-कभी दैव के प्रभाव से होता । इस संसार में कोई भी