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________________ द्वितीय अध्ययन : मृषावाद-आश्रव १५३ समझ पाते या विपरीत समझ लेते हैं। जानबूझ कर अस्पष्ट कहना हृदय की कालिमा को प्रगट करना है । स्वच्छ हृदय वाले अपने मन की बात साफ-साफ कह दिया करते हैं । सत्य स्वच्छ और स्पष्ट होता है, जबकि असत्य अस्वच्छ और अस्पष्ट । इसलिए मन्मनरूप अस्पष्ट वचन भी असत्य के ही अन्तर्गत है। __ हाँ, जिनको स्वाभाविक रूप से बौखलाने, तुतलाने की आदत है, जिनका उच्चारण स्वाभाविक ही अस्पष्ट है, उनके द्वारा बोला गया अस्पष्ट वचन असत्य नहीं समझना चाहिए । माया, वक्रता आदि से जिनका अन्तःकरण कलुषित है, उन्हीं का हूं हूं', 'ॐ ॐ' या 'ना ना' इत्यादि रूप में कहा हुआ अस्पष्ट वचन ही असत्य समझना चाहिए। नमं—यथार्थ बात को आच्छादन करने वाला वचन 'नूम' नामक असत्य है। असली बात पर पर्दा डाल कर लोगों को अंधेरे में रखना, धोखा देना, किसी चीज पर ढकना लगा कर बंद कर देने की तरह किसी बात को माया का ढकना लगाकर हृदय में बंद कर देना भी एक प्रकार का छल है । इसलिए इसे भी असत्य का साथी बताया गया है। जैसे किसी चीज को डाट या ढक्कन लगाकर किसी पात्र में बंद करके रख देने से वह चीज अंदर ही अंदर सड़ जाती है, उसमें कीड़े कुलबुलाने लगते हैं, इसी प्रकार किसी सच्ची बात को भी कपट वृत्ति से मन में बंद करके रख देने से वह अंदर ही अंदर गंदी होने लगती है, उसकी दुर्गन्ध बाहर फैलने लगती है, उसमें क्रोध, द्वेष, अभिमान आदि के कीड़े कुलबुलाने लगते हैं। पाप छिपाये ना छिपें, छिपें तो मोटा भाग । दाबी दुबी ना रहे, रुई लपेटी आग ॥ इस कहावत के अनुसार बात आखिर फूटे बिना नहीं रहती। और जब वह फूटती है तो उसे छिपाने वाले व्यक्ति की प्रतिष्ठा, गौरव, यश, और आजतक की हुई सेवा या उपार्जित कीर्ति सब धूल में मिल जाती है । इसलिए सच्ची बात को कपट से छिपाकर रखना नूम नामक भयंकर असत्य है। कषायों की तीव्रता होती है, तभी मनुष्य ऐसा दुष्कृत्य करता है। निययो—दूसरों को वंचित करने (धोखा देने) की दृष्टि से जो वचन बोला जाता है, उसे निकृति नामक असत्य कहते हैं। दूसरे के हित का उच्छेद करने वाला या दूसरे की जीविका या' अन्य किसी आर्थिक हित, ज्ञानवृद्धि, सदाचार आदि आत्मिकहित का विध्वंस करने वाला वचन भी निकृति कहलाता है। अथवा अपने आर्थिक या अन्य किसी निहित स्वार्थ की अभिलाषा से परवंचना करना-दूसरों को धोखा देना आदि को भी निकृति कह सकते हैं। जिस वचन में परवंचना, परहित का
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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