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________________ द्वितीय अध्ययन : मृषावाद-आश्रव १५१ मनुष्यों में हाहाकार मचा देती है । इसी प्रकार मनुष्य की वाणी भी जब तक सत्य और न्याय की तट-मर्यादाओं में होकर बहती है, तब तक वह संसार के लिए जीवनदायिनी बनी रहती है, परन्तु जब वह मर्यादाओं को लांघ कर सीमा तोड़ देती है, तब स्वपर के लिए हानिकारक और परपीड़ादायिनी बन जाती है । इसीलिए उत्कूल वचन वे हैं जो सत्य और न्याय की मर्यादाओं से हटकर स्वच्छन्दता और असत्यता का रूप धारण कर लेते हैं । उत्कूल वचन असत्य का साथी इसलिए कहलाता है, कि यह मनुष्य को नीति, न्याय, धर्म और सत्य से भ्रष्ट करने वाला है । चंचलचित्त पुरुष ही ऐसे उत्कूलवचनों का सहारा लेते हैं। धीर पुरुष तो कितनी ही विपत्ति क्यों न आए, न्यायमार्ग से भ्रष्ट करने वाले उद्गार नहीं निकालते । अट्ट - - जब मनुष्य किसी गहरी चिन्ता में डूबा हुआ होता है, किसी आफत से घिरा हुआ होता है, किसी इष्ट के वियोग और अनिष्ट के संयोग से पीड़ित होता है अथवा किसी वैषयिक सुख की तीव्र लालसा से प्रेरित होकर उसे पाने के लिए रातदिन तड़फता रहता है, तब उसके मुख से निकलने वाले वचन प्रायः असत्यरूप होते हैं। क्योंकि इष्टवियोग, अनिष्ट संयोग, पीड़ाचिन्तन और निदान प्राप्ति - लालसा इन चारों प्रकार के आर्त्तध्यानों में निमग्न व्यक्ति को वास्तविकता का उस समय भान ही नहीं रहता । वह शोक और दुःख में अपने स्वभाव से हट जाता है । यही कारण है कि आर्त्त वचन सत्य से विकल होने के कारण असत्य के ही साथी हैं । अभक्खाणं – दूसरों पर मिथ्या दोषारोपण करना अभ्याख्यान नामक असत्य है | अभ्याख्यान असत्ययों है कि अभ्याख्यान के समय व्यक्ति द्वेषवश होता है और जो दोष दूसरों में नहीं हैं, उन्हें अपनी कल्पना से लगा कर झूठमूठ उसे लांछित करता है । किसी पर झूठा कलंक लगाते समय व्यक्ति पहले उसके बारे में कोई छानबीन नहीं करता, बिना ही विचार किये उस पर आरोप लगा देता है । इससे दूसरे व्यक्ति की प्रतिष्ठा खत्म हो जाती है, लोगों में वह बदनाम हो जाता है । आम जनता की नजरों में वह गिर जाता है । स्वाभिमानी मनुष्य तो इस मिथ्यापवाद से लांछित और अप्रतिष्ठित होकर तिलमिलाने लगता है। कई बार तो वह इसके सदमे के कारण आत्महत्या तक कर बैठता है । इसलिए अभ्याख्यान में असत्य का जहर होने के कारण नरहत्या का भयंकर पाप भी संभव है । इस कारण अभ्याख्यान भी असत्य हिना हाथ है । किव्विस -- किल्विष यानी पाप का हेतु होने से इसे किल्विष भी कहा गया है । पहले कहा जा चुका है कि असत्य अनेक पापों का जनक है । असत्य के साथ क्रोध, अभिमान, राग, द्वेष, काम, लोभ, मोह, हिंसा आदि भयंकर पाप भी जुड़े हुए हैं । एक असत्य को छिपाने के लिए असत्यवादी अनेक असत्यों का, हिंसादि
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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