SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५० श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र ही उसके अवगुणों का कथन करना । यानी किसी की पीठ पीछे से झूठी निन्दा करना या चुगली करना मिथ्यापश्चात्कृत है । कई लोगों की यह आदत होती है कि वे सामने तो अपना काम निकालने के लिए 'हां, जी हां' करेंगे या उसकी प्रशंसा करेंगे; किन्तु उसके चले जाने या सामने से ओझल हो जाने पर उसकी भरपेट निन्दा करेंगे, उसके अवगुणों का झूठ-मूठ ही ढिढोरा पीटते फिरेंगे। यह आदत असत्यवादिता को बढ़ावा देने वाली है । इसलिए 'मिथ्या पश्चात्कृत' को असत्य का भाई मानना अनुचित नहीं होगा । साती - अविश्वास पैदा करने वाला वचन साती कहलाता है । असत्य स्वयमेव अविश्वास पैदा करने वाला होता है । असत्य से परस्पर समाज, जाति, परिवार और राष्ट्र में बहुत जल्दी अविश्वास पैदा हो जाता है; जो दो हृदयों को परस्पर जोड़ने के बजा तोड़ देता है | विश्वास का उच्छेद करने का कारण होने से 'साती' असत्य का ही एक रूप है । उच्छन्नं - अपने दोषों और दूसरों के गुणों को ढकने के लिए आच्छादनरूप वचनप्रयोग उच्छन्न है । जहाँ-जहाँ गुप्तता है, छिपाना है, वहाँ वहाँ असत्य है । मनुष्य उसी चीज को छिपाता है, जो लोकनिन्द्य, शास्त्रनिषिद्ध और अनाचरणीय बात या व्यवहार हो । अथवा द्वेषवश भी दूसरों के गुणों पर पर्दा डाल देता है, उन्हें यथार्थ रूप से प्रगट नहीं करता है। वह सोचता है, कि अगर अमुक व्यक्ति के गुणों को व्यक्त करूंगा तो लोगों में उसकी ख्याति व प्रभाव फैलेगा, उसकी प्रशंसा और प्रसिद्धि होगी । इस तेजोद्वेष के वश वह किसी भी गुणी के गुण को व्यक्त नहीं करता; यह अन्याय है, जो पाप रूप है । वास्तव में प्रकटं पुण्यं प्रच्छन्नं पापम्' इस न्याय के अनुसार जो भी कपट के वश प्रछन्न- गुप्त रखा जाता है, वह पाप है । इसलिए उच्छन्न वचन भी पापरूप होने के कारण असत्यमय है और असत्य का साथी है । इसके बदले किसी-किसी प्रति में 'उच्छुत्त' शब्द मिलता है, उसका अर्थ हैसूत्रविरुद्ध प्ररूपण करना । शास्त्र या सिद्धान्त के आशय के विरुद्ध अपनी ही स्वच्छन्द कल्पना से या स्वार्थभावना से प्रेरित होकर किसी बात का प्रतिपादन करना उत्सूत्रवचन कहलाता है, जो असत्य के बहुत ही निकट है । उत्सूत्रप्ररूपण असत्य के निकट इसलिए होता है कि उसे सत्य के नाम से चलाया जाता है, सिद्धान्त या सूत्र के द्वारा उसकी पुष्टि की जाती है । भी सुखशान्ति और उक्कूल - नदी जब तक दो कूलों (तटों) की सीमा के अन्दर बहती है, तब तक वह स्वयं भी शान्त रहती है, और जगत् के प्राणियों को जीवन प्रदान करती है, परन्तु जब वह दोनों तटों की सीमा को धारण कर लेती है, तब प्रलय मचा देती है, वृक्ष, पौधे आदि लांघकर बाढ़ का रूप को उखाड़ फेंकती है,
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy