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________________ द्वितीय अध्ययन : मृसावाद-आश्रब १४५ के हैं। यानी '१६-२०-२०-२१ ऐसा-ऐसा कहते हैं ।' कन्या के पिता ने सोचा-'लड़की के लिए २ .-२१ साल का जवान वर मिलता है तो सगाई तय कर ली जाय।' उसने दलाल से कहा- हमारी लड़की के साथ उस लड़के का रिश्ता पक्का । लो ये रुपये भेंट के !' यों कहकर उन्होंने दलाल को काफी रुपये दिये। इधर बूढ़े वरराज से भी उसने काफी रुपये ऐंठे ही थे। विवाह में फेरों के समय जब बूढ़े वरराज घोड़ी पर बैठ कर दुल्हे बनकर आए तो कन्यापक्ष के लोग आश्चर्य में पड़ गए । आपस में कानाफूसी करने लगे—'यह वर तो ८० साल का बूढ़ा है। क्या इसी के साथ लड़की का रिश्ता तय हुआ है ?' संयोगवश धूर्त दलाल भी वहीं आया हुआ था । उससे लड़की के पिता ने पूछा-'अरे ! तुम तो लड़का २०-२१ साल का बता रहे थे, यह तो ८० साल से कम का नहीं जंचता। क्या बात है ?' तब उसने रहस्य खोला 'कि मैंने जो कहा था, उन्हें जोड़कर देखलो, मैंने कुछ झूठ बोला है क्या ! १६-२०-२० और २१ चारों मिलकर संख्या पूरी ८० होती है। इसीलिए मैंने अन्त में कहा भी था कि एसी एसी के हैं । यानी ८०-८० कहते हैं।' कन्या के पिता ने दलाल को खूब डांटा फटकारा ; पर अब क्या हो सकता था ? आखिर वह रो-धो कर रह गए और लड़की बूढ़े के साथ ब्याहनी पड़ी। यह था मायापूर्वक मृषा वचन का प्रयोग ! यह कोरे असत्य से भी कई गुना अधिक खतरनाक होता है। इसी प्रकार कुछ लोग ऊपर से वैराग्य की बातें करके, संन्यास या साधु के वेष का डोल दिखाकर लोगों को त्याग की ओट में खूब फंसा लेते हैं । मधुर और शास्त्रीय वचनों का वे ऐसा जाल रचते हैं कि आगन्तुक आकर्षित होकर उनके चंगुल में फंस ही जाता है। और जो कुछ भी द्रव्य होता है, वह उन्हें दे बैठता है । यह है मायासहित वचनचातुरी, जो असत्य को भी मात कर देती है। इसलिए मायामृषा को असत्य की दादी कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। __ असंतकं-असत् यानी अविद्यमान वस्तु का प्रतिपादन विद्यमान के रूप में करना असत्क कहलाता है, अथवा अप्रशस्त का बखान करना भी असत्क कहलाता है। क्योंकि असत् शब्द के दो अर्थ हैं—अविद्यमान और अप्रशस्त । जो चीज विद्यमान न हो उसे विद्यमान बतलाना तो मिथ्यावचन है ही, खराब वस्तु की बढ़ाचढ़ा कर तारीफ करना भी असत्यमिश्रित कथन होने से असत्यवचन ही है । वास्तव में देखा जाय तो मनुष्य कई बार स्वार्थवश या अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिहाज से अपनी स्थिति को वैसी न होते हुए भी बढ़ाचढ़ा कर बताता है अथवा किसी में कोई गुण न होने पर भी उसमें उस गुण का अस्तित्व बतलाता है, यह सरासर झूठ है । कई दफा दूकानदार अपनी वस्तु को बेचने के लिहाज से वह वस्तु १०
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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