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________________ १४६ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र खराब हो, तो भी उसकी खूब तारीफ करके ग्राहक के गले मढ़ देता है । यह भी असत्य और बे-ईमानी का ही एक प्रकार है। कूडकवडमवत्थु—इस पद में तीन शब्द हैं, उनको, मिला कर एक पद कर दिया गया है—कूट, कपट और अवस्तु । दूसरों को ठगने के लिए हीनाधिक कहना कूटवचन है, वचन का विपर्यास-विपरीतता कर देना यानी आशय को बदल देना कपट है। किसी ने किसी से कहा कि मुझे फलां दिन तुमने ५०) रु. देने को कहा था, तब वह कहे कि 'मैंने कब कहा था ? मैंने तो फलां चीज के बदले में ५०) रु. देने को कहा था।' इस प्रकार वचन को या कहने के आशय को रद्दोबदल कर देना कपट कहलाता है। इसी तरह जिस वस्तु का अस्तित्व ही नहीं है, उसका प्रतिपादन करना अवस्तु कथन है । जैसे कोई कहे कि-'उस वंध्यापुत्र से मैं कल मिला था।' वन्ध्या के पुत्र होता ही नहीं, तब उससे मिलना तो दूर रहा। इस प्रकार अस्तित्वहीन वस्तु का कथन करना अवस्तु है। शास्त्रकार ने इन तीनों वचनों में थोड़ा-बहुत अन्तर होने के कारण तीनों को सम्मिलित करके एक नाम से असत्य के पर्यायवाची शब्द के रूप में गिनाया है। वर्तमान राजनीति और समाज एवं राष्ट्र की नीति बहुत दूषित हो गई है। वह धर्मलक्षी नीति न रहकर कूटनीति बन गई है। यही कारण है कि राष्ट्रराष्ट्र में, राष्ट्रीय सरकार और जनता में, समाज और उसके सदस्यों में परस्पर अविश्वास, आशंका, अशान्ति बढ़ती जा रही है । कूटनीति के कारण न उसके आचरण करने वाले को ही शान्ति मिलती है और न जनता को ही। व्यापारिक जगत् में भी वचन देकर बदल जाना, बे-ईमानी, मिलावट और धोखाधड़ी करना आम बात हो गई है। इसीलिए कूट, कपट और अवस्तु को शास्त्रकार ने असत्य की कोटि में बताया है। मगर एक बात निश्चित है कि कोई व्यक्ति चाहे जितनी कूटनीति को अपना ले, एक न एक दिन उसकी कलई खुले बिना नहीं रहती । चाहे वह व्यापारी हो, चाहे राजनीतिज्ञ हो, और चाहे वह भ्रष्टाचारी नेता ही क्यों न हो, अधिक दिन तक कोई भी व्यक्ति जनता, समाज या राष्ट्र की आँखों में धूल नहीं झौंक सकता। जब उसकी कूटनीति की पोल खुलती है तो वह ऐसे गिर जाता है, जैसे आसमान से कोई चीज गिरी हो। वह जनता की नजरों में गिर जाता है, समाज और परिवार में उसकी इज्जत खत्म हो जाती है ; वह कहीं का भी नहीं रहता। लाभ से कई गुनी हानि उसे उठानी पड़ती है, मानसिक परेशानी होती है, सो अलग। आजकल कई धर्मसम्प्रदाय के लोग भी अपना मतलब सिद्ध करने के लिए
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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