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________________ द्वितीय अध्ययन : मृषावाद-आश्रव १४३ लोभ या स्वार्थ के वश अहितकर होने से सच कहे जाने पर भी परिभाषा के अनुसार असत्य में गिना जाता है । निन्दा, गाली, अपनी प्रशंसा, चुगली, ईर्ष्या, दूसरों पर दोषारोपण, क्रोध, या अभिमानपूर्वक डींग मारने, दूसरे को नीचा दिखाने या वदनाम करने के लिए बोले जाने वाले शब्दों में अतिशयोक्ति — बढ़ा-चढ़ा कर कहने की वृत्ति- -आ जाती है, इसलिए ये सब असत्य के अन्दर ही गतार्थ हो जाते हैं । हास्य के वश, रोष के वश, मनुष्य न कहने योग्य बात कह जाता है, वह भी असत्य है । इसी प्रकार किसी को वचन देकर बाद में बदल जाना, मुकर जाना, विश्वासघात करना, सत्य को छिपाना, प्रतिज्ञा करके इन्कार कर जाना, आदि सभी असत्य में शुमार हैं। मतलब यह है कि जो वचन सभी प्राणियों के लिए हितकर न हो, जिससे अपने आपका मन भी भय, क्षोभ आदि मानसिक संक्लेश में पड़े, उसे असत्य समझ लेना चाहिये । नीचे हम शास्त्रकार के द्वारा उल्लिखित असत्य के ३० नामों का आशय क्या है ? इसके ये पर्यायवाची शब्द क्यों हैं ? इसका क्रमशः विश्लेषण करते हैं अलियं - मिथ्या कथन का नाम अलीक है । मनुष्य क्रोध, लोभ, हास्य, भय, स्वार्थ, द्वेष, ईर्ष्या आदि के वश झूठ बोल देता है। उसका इन विकारों के अधीन होकर बोलना स्वपर के लिए हितकर नहीं होता । वह दोनों को हानि पहुंकाने वाला होता है । इसलिए 'अलीक' को मृषावाद का भाई कहने में कोई अत्युक्ति नहीं । सढं कई बार मनुष्य अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए दूसरों के साथ शठता – दुष्टता से भरे वचनों का प्रयोग करता है । वह समझता है कि इस प्रकार के दुर्वचन या धमकी भरे वचन, अथवा डांट-फटकार के वचन से मैं दूसरों पर रौब गांठकर, अपनी धाक जमा कर, या दूसरों को कायल करके अपना मतलब सिद्ध कर लूंगा; मगर उसके वे दुष्टवचन, जिनमें असत्य का जहर मिला होता है, दूसरे को पीड़ा तो पहुंचाते ही हैं, उसके स्वयं के लिए भी हितकर नहीं होते । इससे भयंकर कर्मबन्ध होते हैं । इसलिए शठ या शाठ्य को असत्य का पर्यायवाची यथार्थ ही कहा है । वास्तव में शठतापूर्ण वचनों से किसी पर स्थायी प्रभाव नहीं डाला जा सकता और न सुख शान्ति ही प्राप्त की जा सकती है। इससे तो प्रायः वैर विद्वेष की परम्परा ही बढ़ती है । कई लोगों का कहना है कि 'शठे शाठ्यं समाचरेत्' इस नीति के अनुसार संसार में चलने वाला सुखी रहता है । परन्तु यह नीति धर्मलक्षी सच्ची नीति नहीं है । किसी ने शठता की, उसे के बदले में यदि दूसरा भी शठता करता है तो उससे समस्या का वास्तविक हल नहीं होता। बल्कि कई बार तो 1 समस्या उलझ
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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