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________________ द्वितीय अध्ययन : मृषावाद - आश्रव १३७ विश्वस्त और आत्मविकास का पथिक बन जाता है । इसीलिए असत्य उत्तम जनों और साधुओं द्वारा निन्दनीय है । परपीलाकारकं - यह तो सर्व विदित है कि असत्य वचन से प्राणियों की हैरानी परेशानी बढ़ जाती है, जिसके प्रति असत्याचरण किया जाता है, उसके दिल को सख्त चोट पहुंचती है। जितने भी पीड़ाकारी वचन – ( मारो, काटो आदि आदेश कारक या काना, दुष्ट, चोर आदि सम्बोधन कारक वचन) हैं, वे सब असत्य में ही समाविष्ट हैं, इसलिए असत्य वचन परपीड़ाकारी है । कठोर, कर्कश, हिंसाकारी, छेदकारक, भेद (फूट) डालने वाली, मर्मस्पर्शी या अपशब्दमयी व्यंग्यमयी वाणी दूसरों को सदा दुःख और पीड़ा ही पहुंचाती है । प्रिय हित, मित और सत्य वचन ही सबको शान्ति पहुंचाते हैं । परम किहलेस्ससहियं - अत्यन्त दुष्ट परिणाम ही परमकृष्णलेश्यारूप हैं । असत्य वचन और आचरण करने वाले के मन में परमकृष्णलेश्या की संभावना है । क्योंकि जब मन में अत्यन्त दुष्ट परिणाम होते हैं, तभी व्यक्ति सच्ची बात को विपरीत बनाने के लिए असत्य वचन का सहारा लेता है । परमकृष्णलेश्यारूप दुष्ट परिणामों के कारण जीव दुर्गति में जाता है । यदि उस समय उसके आयु का बंध हो जाय तो वह अवश्य ही नरकगति का पथिक बन जाता है । जहाँ उसे असंख्य वर्षों (सागरोपमकाल) तक नरक के दुःखों में पड़े रहना पड़ता है । पर यह होता है केवल जरा-से काल्पनिक स्वार्थ या सुखानुभव करने के लिए, अथवा क्षणिक कषाय के आवेश में आकर असत्य वचन बोलने पर ! इसलिए असत्य वचन परमकृष्णलेश्यायुक्त बनता है। और जीव को नरकगामी बना देता है । कषाय के उदय के अनुसार मन, वचन काया की जो प्रवृत्ति होती है, उसे लेश्या कहते हैं । वास्तव में देखा जाय तो लेश्या का सीधा सम्बन्ध मन से है । वचन और शरीर तो उसी के पीछे चलते हैं । इसलिए कषायसहित मन की तरंगों को ही लेश्या कहना चाहिए । कषाय के दो प्रकार हैं- अप्रशस्त और प्रशस्त । अतः मन में जिस - जिस प्रकार के शुभ या अशुभ कषायों की तरंगें उठेंगी, लेश्या भी उस उस प्रकार की शुभाशुभ बनती जायगी । कृष्णलेश्या अत्यन्त रौद्ररूप है । मन में भयंकर, क्रूर और तीव्र परिणाम होने पर ही कृष्णलेश्या होती है । परमकृष्णलेश्या तो क्रू रातिक्रूर परिणाम होने पर होती है, जो असत्य भाषी में मृषानुबंधी रौद्रध्यानवश होनी संभव है । इसलिए असत्य को ‘परमकृष्णलेश्यासहित' बताया, वह ठीक ही है । दुग्गइविणिवायविवड्ढणं - चूंकि असत्य परमकृष्णलेश्या रूप होता है, इसलिए दुर्गतियों – नरक तिर्यंच गतियों में जन्ममरण की वृद्धि करने वाला है । असत्यभाषी परमकृष्णलेश्या के वश दुर्गति का बंध कर लेता है । परन्तु उस बंध में वृद्धि तब होती
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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