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________________ १३६ - श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र छिपाने के लिए यह किसी को झूठा अश्वासन देता है, किसी से कपटपूर्वक मधुर बोलता है, किसी को झूठ बोलकर फंसाता और सताता है। पापात्माओं के लिए नीतिकार कहते हैं –'मनस्यन्यद् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यद् दुरात्मनाम्' दुष्ट आत्माओं के मन में कुछ और रहता है, वचन से वे कुछ और ही बात प्रगट करते हैं और शरीर की चेष्टाएँ दूसरी ही तरह की दिखाते हैं । यानी नृशंस के मन-वचन-शरीर सब में असत्यता ही भरी रहती है । इसीलिए असत्य को नृशंस कहा है। अथवा इसका दूसरा रूप बनता है-'निःशंस', जिसका अर्थ होता है-प्रशंसा से रहित । असत्य की कोई भी प्रशंसा नहीं करता। स्वयं असत्यवादी भी उसकी सार्वजनिक रूप में प्रशंसा कभी नहीं करता। इसलिए असत्य सदा अप्रशंसनीय है। ___ अपच्चयकारकं असत्य सदा अप्रतीति पैदा करने वाला होता है। असत्यभाषी पर किसी को प्रतीति या विश्वास नहीं होता । ऐसा व्यक्ति कदाचित् सत्य भी बोलता हो, तो भी उस पर भरोसा नहीं बैठता । असत्यभाषण करने वाले को कोई जिम्मेवारी नहीं सौंपी जाती ; कोई आर्थिक कार्य नहीं दिया जाता ; उसके साथ लेनदेन का व्यवहार करने में भी लोगों को संकोच होता है। इसलिए असत्य अविश्वास की खान है, अप्रतीति पैदा करने वाला है। संसार के सब कार्य या व्यवहार विश्वास के बल पर चलते हैं, लोग अपनी धनसम्पत्ति को विश्वास करके ही किसी के पास धरोहर रखते हैं या बैंक में जमा कराते हैं । सत्यवचन ही विश्वासजनक होता है। सांसारिक या पारमार्थिक जितने भी कार्य हैं, वे सब विश्वासजनक सत्य पर आधारित हैं। क्या परिवार, क्या समाज और क्या राष्ट्र सर्वत्र पारस्परिक विश्वासजनक सत्य के आधार पर ही सारी संधियां, सम्बन्ध, लेनदेन, सहयोग के आदान-प्रदान आदि होते हैं। उनमें जहाँ जरा भी असत्य आया या एकबार भी किसी को असत्यता का आभास हुआ कि वहाँ अविश्वास की कुल्हाड़ी पड़ जाती है, जो जमे हुए विश्वास को उखाड़ देती है। पति-पत्नी में परस्पर असत्य-वचन से मन फट जाता है, अविश्वास पैदा हो जाता है। इसलिए असत्य विश्वासघात करने वाला और अविश्वसनीय है। सत्य ही विश्वास पैदा करने के लिए अमोघ अस्त्र है। परमसाहुगरहणिज्जं असत्य उत्तम पुरुषों और विश्व हितैषी साधु-महात्माओं द्वारा सदा ही निन्दनीय और गहित होता है । असत्य उनके द्वारा इसलिए निन्दित है कि असत्य से जीवन के समस्त व्यवहार ठप्प हो जाते हैं, उन्नति रुक जाती है, आत्मिक उत्थान में विघ्न आ जाता है, सुख शान्ति लुप्त हो जाती है, विश्वास उठ जाता है। इसलिए वे हमेशा इस निन्दनीय असत्यमार्ग से दूर रहने का उपदेश देते हैं । जो उनके उपदेश से इस निन्द्य असत्य पथ को छोड़ देता है, वह सुखी, शान्त, स्वस्थ, निर्भय,
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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