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________________ १३८ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र है, जब एकबार असत्य-आचरण करके किसी ने दुर्गति का बंध कर लिया, फिर बारबार असत्य का सेवन करे तो वह दुर्गति के अपने पूर्व बंध में और भी वृद्धि कर लेता है । अथवा पहले असत्य सेवन के कारण जिसके प्रथम नरक की एक सागरो - म की स्थिति का बन्ध हुआ तो फिर पुनः पुनः असत्य सेवन कर वह उस स्थिति ( कालावधि ) को और बढ़ा लेता है । यानी दूसरे और तीसरे आदि आगे के नरकों में जाने की सामग्री जुटा लेता है । यद्यपि आयुकर्म का बन्ध समस्त आयु के त्रिभागों में से किसी एक त्रिभाग में एकबार हो जाता है; लेकिन बाद में समय-समय पर बंधने वाले समयप्रबद्धों (एक समय में बंधने वाले) आठों कर्मों का बंटवारा होता रहता है । जब शुभ परिणामों से ध होता है तब शुभ प्रकृतियों की स्थिति और अनुभाग में वृद्धि होती है । और जब अशुभ परिणामों से बंध होता है तब अशुभ प्रकृतियों की स्थिति और अनुभाग में वृद्धि होती है । इस दृष्टि से असत्य सेवन पहले की बंधी हुई दुर्गति की स्थिति को भी बढ़ाता है । इस पद का दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि असत्य दुर्गति में गिरने को बढ़ावा — प्रोत्साहन देता है । जब मनुष्य असत्य बोलता है तो बिना सोचे-समझे और निःशंक होकर बोलता है, बल्कि वह असत्य की ही बारबार तारीफ करता है और मन ही मन असत्य से अपना काम बना लेने में पूरा विश्वास रखता है, इस कारण दुर्गति गर्द में होने वाले पतन को उसके व्यवहार से बढ़ावा मिलता है । भव पुणभवकरं— असत्य संसार में बारबार जन्म कराने वाला है । अकसर देखा जाता है कि एकबार जिस आत्मा का पतन हो जाता है, उसे उसके फलस्वरूप नरकतिर्यंचादि कुगतियों व कुयोनियों में से किसी में जन्म लेना पड़ता है । वहाँ के खराब निमित्तों से उसकी आत्मा और अधिक पतित होती जाती है, उसे आत्म-विकास के मुख्य साधन या निमित्त वहाँ मिलते ही नहीं । फलतः उसकी आत्मा धर्माचरण से शून्य होकर बार-बार उन्हीं - उन्हीं योनियों में जन्ममरण के भंवरजाल में गोते खाती रहती है । इसलिए असत्य जन्म जन्मान्तर का लगातार तांता लगाने में बहुत बड़ा कारण है | चिरपरिचियं -असत्य चिरकाल से जीव का परिचित है । क्योंकि नरक और तिर्यञ्चगतियों में तो सत्य का नाम भी सुनने को नहीं मिला । वहाँ तो प्रवाहपेक्षया अनादिकाल से मिथ्यात्वरूपी अन्धकार में ही आत्मा डूबा रहा, उसे सत्यरूपी सूर्य के दर्शन हुए ही नहीं । इसी प्रकार वर्तमान काल में जो असत्य सेवन करेगा, उसे आगामी काल में असत्य के फलस्वरूप सत्य के दर्शन होने कठिन होंगे; वह असत्य में ही लिपटा रहेगा । इसीलिए असत्य को जीव का चिरपरिचित या दीर्घकाल से अभ्यस्त कहा है । अणुगतं -असत्य जीव का परम्परागत साथी भी रहा है; क्योंकि नरक, तिर्यञ्च
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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