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________________ द्वितीय अध्ययन : मृषावाद-आश्रव १३३ व्याख्या प्राणवध नामक प्रथम आश्रवद्वार का वर्णन कर चुकने पर अब शास्त्रकार 'मृषावाद' नामक द्वितीय आश्रवद्वार का निरूपण करते हैं । जिस प्रकार प्रथम श्र का वर्णन स्वरूप, नाम, साधन, कर्ता और फल इन पांच द्वारों में वर्गीकरण करके किया गया है उसी प्रकार द्वितीय आश्रव का वर्णन भी क्रमशः पांच द्वारों द्वारा शास्त्रकार करना चाहते हैं । अतः प्रसंगवश सर्वप्रथम शास्त्रकार मृषावाद के स्वरूप का निरूपण करते हैं । अलियवयणं—मिथ्यावचन को अलीकवचन कहते हैं । व्यक्ति जब मन में यथार्थं से विपरीत सोचता है, तभी उसके वचन में झूठ प्रगट होता है । इसलिए अयथार्थ विचार का सम्बन्ध अयथार्थ भाषण के साथ अवश्यम्भावी है । लहुसग - लहुचवलभणियं -- लघु का अर्थ हलका, होनं या तुच्छ होता है । जिनकी आत्मा लघु है यानी बात-बात में ढिलमिल हो जाती है, जो अपनी बात के धनी नहीं होते — जरा-जरासी देर में कहकर बदल जाते हैं, वे गुण और गौरव से हीन व्यक्ति लघुस्वक (हीन आत्माएँ) हैं ; साथ ही जो झटपट किसी बात को सोचे- विचारे बिना कह डालते हैं या चंचलतावश कुछ भी बोल देते हैं, ऐसे हीनात्मा तथा उतावले और चंचल व्यक्तिओं द्वारा ही मृषावाद बोला जाता है । भयंकरं -असत्य बोलने वाले व्यक्ति के मन में अपने-आप भय पैदा होता है कि " कहीं मेरी कलई खुल गई तो, कहीं मेरा झूठ साबित हो गया तो, क्या होगा !" इस प्रकार डर के मारे उसके हाथ-पैर कांपने लगते हैं । साथ ही असत्य भाषण परम धर्मात्मा पुरुषों, परहिततत्पर साधु महात्माओं तक को भी पलभर में भयग्रस्त कर देता है । झूठे लोगों द्वारा किये गए मिथ्या दोषारोपण ने सुदर्शन सेठ सरीखे अतिधर्मात्मा पुरुषों और निर्मलचित्त साधुमहात्माओं को बड़े भयंकर दुश्चक्र में डाला है । बड़े-बड़े प्रतिष्ठित लोगों ने मिथ्या अपवाद के डर से आत्महत्या तक करली है । अतः यह असंदिग्धरूप से कहा जा सकता है कि असत्य बड़ा भयंकर और तमाम पापों का जनक है। दुहकरं असत्य वचन स्वयं बोलने वाले को और जिसके लिए वह बोला जाता है उसको, दोनों को दुःख देने वाला है । असत्य बोल कर या असत्याचरण करके व्यक्ति किसी आपत्ति या दुःख से बच जायेगा या वह खूब पैसा कमा लेगा, यह निरा भ्रम है । जो चीज अन्तरायकर्म के क्षयोपशम द्वारा प्राप्त होने वाली है, वह झूठ बोल कर कैसे प्राप्त की जा सकेगी ? या जो आफत वा विपत्ति असातावेदनीय कर्म के उदय से आने वाली है, वह असत्य के बल पर कैसे टाली जा सकेगी ? अतएव असत्यवचन सदैव दुःख का जनक रहा है और रहेगा । वर्तमान में झूठ का -
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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